Book Title: Kaalchakra Jain Darshan ke Pariprekshya me
Author(s): Sanjiv Godha
Publisher: A B D Jain Vidvat Parishad Trust

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Page 70
________________ "काल चक्र : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में 69 की प्राप्ति हो जाती है। भोग सामग्री प्रचुर मात्रा में होती है। आयु बहुत लम्बी होती है तथा रोग और वृद्धावस्था भी नहीं है । तथा भोगभूमि से मरकर सभी जीव नियम से देव गति में ही जाते हैं; अतः यही श्रेष्ठ काल है । उक्त सभी बातें अविचारित रम्यं जैसी है। जो ऊपर-ऊपर से देखने पर अच्छी लग रही है। यह काल भोगों में सुख मानने वालों को ही अच्छा लग सकता है; माना कि वहाँ सुविधायें बहुत हैं, आयु अधिक है; पर वह सब कुछ शाश्वत नहीं है, मरण तो होता ही है। दूसरी बात, अधिक भोग सामग्री होने पर भी वह इस जीव को सुखी करने में समर्थ नहीं है। आचार्य नेमीचन्दस्वामी त्रिलोकसार में लिखते हैं कि – 'प्रचुर भोग सामग्री भी भोग भूमिया जीवों को तृप्ति देने में समर्थ नहीं है।' पंचेन्द्रिय के विषय भोग तो चाहे कर्म भूमि के हों या भोग भूमि के – मधुर विष के समान ही हैं। इन्हें भोगने पर शान्ति नहीं मिलती; ये तो आग में घी डालने जैसा ही कार्य करते हैं। अतः भोग भूमि के काल को श्रेष्ठ नहीं कहा जा सकता । कर्म भूमि के दुषमा- सुषमा नामक चौथे काल को श्रेष्ठ कहने वालों का तर्क है कि इस काल में तीर्थंकर होते हैं। जीवों को शुक्ल ध्यान, श्रेणी चढ़ना एवं निर्वाण की प्राप्ति इसी काल में संभव है; अतः इसे ही श्रेष्ठ कहना चाहिये । एक अपेक्षा से उक्त बात ठीक है। पर, क्या चतुर्थ काल में जन्मे सभी जीव निर्वाण की प्राप्ति करते हैं ? क्या चौथे काल में सभी धर्मात्मा ही होते हैं ? क्या पंचम काल में धर्म नहीं होता ?

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