Book Title: Kaalchakra Jain Darshan ke Pariprekshya me
Author(s): Sanjiv Godha
Publisher: A B D Jain Vidvat Parishad Trust

View full book text
Previous | Next

Page 69
________________ काल चक्र : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में 68 नहीं बदलता। अग्नि हर काल में ऊष्ण ही होती है। I तत्त्व सात होते हैं और द्रव्य छह। कर्म आठ होते हैं और गुणस्थान चौदह । जीव असंख्यात प्रदेशी है और आकाश अनंत प्रदेशी । नरक, स्वर्ग, मध्यलोक - इसप्रकार अनगिनत बातें हैं, जो त्रिकाल एक समान हैं । इसप्रकार उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल परिवर्तित होते हुये भी वस्तु का द्रव्य स्वभाव एवं सैद्धान्तिक स्वरूप कभी नहीं बदलता। सिद्धान्त त्रिकाल होते हैं, वे काल के अनुसार बदला नहीं करते। इसीलिये कालचक्र अनुसार परिवर्तनशील इस जगत में भी ज्ञानियों की दृष्टि अपरिवर्तनशील स्वभाव पर ही रहती है। कौनसा काल श्रेष्ठ ? काल के इतने भेद-प्रभेद बताये गये हैं, आखिर इनमें से कौनसा काल श्रेष्ठ है ? हमारे लिये कौनसा काल अच्छा है ? कौनसे काल में जीव सबसे अधिक सुखी होते हैं ? छह काल दो भागों में विभक्त हैं। प्रारंभिक तीन काल भोग भूमि के और अंतिम तीन काल कर्म भूमि के हैं। इनमें या तो आप भोग भूमि को अच्छा कहेंगे या कर्म भूमि को । कुछ लोग चौथे काल को श्रेष्ठ कहते हैं तो कुछ उत्तम भोग भूमि रूप पहले काल को ? छह कालों में दुषमा (पंचम) और अतिदुषमा (छठे) काल को तो कौन श्रेष्ठ कह सकता है ? अर्थात् कोई नहीं कहता । प्रथम काल को श्रेष्ठ कहने वालों का तर्क है कि वहाँ मन चाहे भोग मिलते हैं, कल्प वृक्षों से सभी प्रकार की सुख-सुविधाओं

Loading...

Page Navigation
1 ... 67 68 69 70 71 72 73 74