Book Title: Kaalchakra Jain Darshan ke Pariprekshya me
Author(s): Sanjiv Godha
Publisher: A B D Jain Vidvat Parishad Trust

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Page 63
________________ काल चक्र : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में वर्तती है। उक्त पहले से चौथे काल के नियमों को आचार्य नेमीचन्द्र ने एक ही गाथा में प्रस्तुत कर दिया है। लोकविभाग में निषध, नील आदि पर्वतों पर भी काल अपरिवर्तन बताया है। मध्यलोक में ढाई द्वीप व अंतिम आधे द्वीप व समुद्र को छोड़कर शेष असंख्यात द्वीप-समुद्रों में जघन्य भोगभूमि (सुषमादुषमा काल) वर्तती है। अंतिम आधा स्वयंभूरमण द्वीप एवं अंतिम स्वयंभूरमण समुद्र में कर्मभूमि है, वहाँ पंचम (दुषमा) काल जैसी स्थिति है।187 चतुर्गति में काल परिवर्तन के संबंध में आचार्य नेमीचन्द्र लिखते हैं - । 'पढमो देवे चरिमो णिरए, तिरिए णरेवि छक्काला188 अर्थात् देवगति में सदैव प्रथम (सुषमा-सुषमा) काल जैसा और नरक में सदैव छठा (दुषमा-दुषमा) काल जैसा वातावरण रहता है तथा मनुष्य-तिर्यचों में छहों काल वर्तते हैं। जहाँ देव एवं नारकियों के प्रथम एवं छठे काल की बात कही, वहाँ परिस्थितियों की अपेक्षा ही बात समझना चाहिये; आयु की अपेक्षा नहीं। कुछ सहज जिज्ञासायें ? विविध आगम प्रमाणों के आधार से काल के स्वरूप एवं उसके विविध प्रकार से भेद-प्रभेदों की चर्चा करने के उपरान्त भी 185. त्रिलोकसार गाथा-882 186. लोकविभाग, 5/35-38187. हरिवंश पुराण, 5/30-31 187. हरिवंश पुराण, 5/30-31 188. त्रिलोकसार, गाथा-884

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