Book Title: Kaalchakra Jain Darshan ke Pariprekshya me
Author(s): Sanjiv Godha
Publisher: A B D Jain Vidvat Parishad Trust

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Page 61
________________ काल चक्र : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में विवेचन जैन आगमों में उपलब्ध है। आचार्य यतिवृषभ174 एवं आचार्य नेमीचन्द्र15 के अनुसार आगामी चौबीसी के प्रथम तीर्थंकर महापद्म ने राजा श्रेणिक के भव में तथा 16 वें तीर्थकर निर्मल ने श्रीकृष्ण के भव में तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया। इसप्रकार तीर्थंकर, चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण एवं बलभद्रों के जन्म एवं कर्म सहित तृतीय काल पूर्ण होता है। उत्सर्पिणी का चौथा काल प्रारंभ होते ही एक ही समय में विकलेन्द्रिय प्राणियों के समूह एवं कुलभेद नष्ट हो जाते हैं तथा प्रथम समय में कल्पवृक्षों की भी उत्पत्ति हो जाती है। उत्सर्पिणी के चौथे काल में जघन्य भोगभूमि, पंचम काल में मध्यम भोगभूमि तथा छठे काल में उत्तम भोगभूमि के समान रचना होती है। इन भोगभूमियों का स्वरूप अवसर्पिणी के कालों के समान ही है, अन्तर मात्र इतना है कि यहाँ उत्तरोत्तर वृद्धि का काल है, वहाँ हास का काल था। इस प्रकार उत्सर्पिणी के छह काल समाप्त होने पर पुनः अवसर्पिणी काल प्रारंभ होता है। इस प्रकार यह क्रम अनादि काल से चला आ रहा है और अनन्त काल तक यही क्रम चलता रहेगा। काल अपरिवर्तन वाले क्षेत्र - इस लोक में बहुत-से क्षेत्र ऐसे हैं, जहाँ सदैव एक जैसा ही काल वर्तता है। षट् काल रूप परिवर्तन मात्र पाँच भरत एवं पाँच 174. 'तित्थयर णामकम्मं बंधते ताण ते इमे णामा सेणिग...किण्हा...'- ति.प 4/1605-1606 175. 'सेणियचर पढमतित्थयरो....किण्हचरणिम्मलओ....'- त्रिलोकसार, गाथा-872 व 874 176. तिलोयपण्णत्ती, 4/1632

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