Book Title: Kaalchakra Jain Darshan ke Pariprekshya me
Author(s): Sanjiv Godha
Publisher: A B D Jain Vidvat Parishad Trust

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Page 59
________________ काल चक्र : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में इसप्रकार अनेक प्रकार की विविधतायें, विचित्रतायें, दोष अथवा अपवाद इस हुण्डावसर्पिणी काल में होते हैं। उत्सर्पिणी के छह काल - प्राणियों को प्राप्त अनुकूलताओं के हासरूप अवसर्पिणी के छह काल व्यतीत हो जाने के पश्चात् इससे विपरीत क्रम में उत्सर्पिणी काल का प्रारंभ होता है। इसके छह काल अवसर्पिणी से विपरीत क्रम में हैं तथा परिस्थितियाँ भी उसी अनुसार होती हैं। अवसर्पिणी के प्रारंभिक तीन काल भोगभूमि के तथा अंतिम तीन काल कर्मभूमि के होते हैं। जब कि उत्सर्पिणी के प्रारंभिक तीन काल कर्मभूमि के तथा अंतिम तीन काल भोगभूमि के हैं। अवसर्पिणी काल के अंत में 49 दिन तक कुवृष्टियों के माध्यम से सृष्टि में प्रलय होती है तथा उत्सर्पिणी काल में प्रारंभिक 49 दिन तक सुवृष्टियों के माध्यम से पुनः सृष्टि रचना प्रारंभ होती है। यहाँ सात-सात दिन तक पुष्कर, क्षीर, अमृत, रस, औषधि, सुगंध जलादि की वर्षा होने से वज्राग्नि से जली हुई सम्पूर्ण पृथ्वी शीतल हो जाती है।169 शीतल गंध को ग्रहण कर गुफाओं में छिपे हुये मनुष्य और तिर्यंच बाहर निकलने लगते हैं। अभी इस काल में यहाँ अग्नि नहीं है, अतः उनका खान-पान रहन-सहन, आचरण आदि सब पशुओं जैसा ही होता है। फिर धीरे-धीरे आयु, तेज, बुद्धि, 169. लोकविभाग, 5/167-169 170. (1) ततो सीयलगंधं, णादित्ता णिस्सरंति णर तिरिया' – तिलोयपण्णत्ती, 4/1583 (2) लोकविभाग, 5/171

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