Book Title: Kaalchakra Jain Darshan ke Pariprekshya me
Author(s): Sanjiv Godha
Publisher: A B D Jain Vidvat Parishad Trust

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Page 58
________________ ST काल चक्र : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में (3) सुषमा-दुषमा काल में ही जीवों का मोक्षगमन प्रारम्भ। (4) चक्रवर्ती का विजय भंग और उसके द्वारा ब्राह्मण वर्णोत्पत्ति। (5) शलाका पुरुषों की 63 संख्या में कमी होना। (6) 9वें से 16 वें तीर्थंकरों के बीच धर्म की व्युच्छित्ति होना। (7) ग्यारह रूद्र और कलह प्रिय नौ नारद उत्पन्न होना। (8) सातवें, तेईसवें एवं अंतिम तीर्थकर पर उपसर्ग होना। (७) तीसरे, चौथे एवं पंचम काल में उत्तम धर्म को नष्ट करने वाले विविध प्रकार के दुष्ट, पापिष्ठ, कुदेव और कुलिंगी भी दिखने लगते हैं। (10) चाण्डाल, शबर, पुलिंद, किरात इत्यादि हीन जातियाँ उत्पन्न होती हैं। (11) दुषमा नामक काल में 42 कल्की एवं उपकल्की होते हैं। (12) अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूवृद्धि और वज्राग्नि आदि का गिरना। प्रत्येक अवसर्पिणी एवं उत्सर्पिणी में होने वाले तीर्थकरों का जन्म नियम से अयोध्या में ही होता है तथा सभी तीर्थकर नियम से सम्मेदशिखर से ही मुक्ति प्राप्त करते हैं,188 किन्तु काल के प्रभाव से वर्तमान में 5 ही तीर्थकर अयोध्या में जन्मे तथा सम्मेदशिखर से भी 20 ही तीर्थकरों ने निर्वाण की प्राप्ति की। कुछ लोग प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के पुत्री होने के पीछे भी काल का ही प्रभाव मानते हैं। 168. शाश्वत तीर्थधाम सम्मेदशिखर, पृष्ठ-9

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