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काल चक्र : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में
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ऐरावत क्षेत्रों में ही होता है, वह भी उनके आर्य खण्डों में ही होता है; म्लेच्छ खण्डों में नहीं होता । तिलोयपण्णत्ती 77 एवं त्रिलोकसार 178 में पाँच म्लेच्छ खण्डों और विद्याधर श्रेणियों में अवसर्पिणी के चौथे काल के प्रारंभ से अंत तक हानि तथा उत्सर्पिणी के तीसरे काल में प्रारंभ से अंत तक वृद्धि होना बताया है।
भरत एवं ऐरावत क्षेत्रों के अतिरिक्त सभी भूमियों में काल परिवर्तन का निषेध करते हुये उमास्वामी आचार्य लिखते हैं ताभ्यामपरा भूमयोऽवस्थिताः 179 अर्थात् अन्य सभी भूमियाँ षट् काल परिवर्तन से रहित है।
देवकुरु 180 – उत्तरकुरु181 में सदैव सुषमा - सुषमा (उत्तम भोग भूमि) नामक प्रथम काल जैसी रचना वर्तती है। विदेह क्षेत्र में सदैव दुषमा-सुषमा नामक चौथे काल जैसी दशा रहती है। यहाँ कभी अतिवृष्टि–अनावृष्टि, अकाल आदि नहीं होता । 182 हरि क्षेत्र 83 एवं रम्यक क्षेत्र में सदैव सुषमा नामक दूसरे काल के समान मध्यम भोगभूमि की रचना रहती है, जो कि हानि-वृद्धि से सदा रहित है। तथा हैमवत क्षेत्र 184 एवं हैरण्यवत क्षेत्र में सदा काल सुषमा–दुषमा नामक तृतीय काल के समान जघन्य भोगभूमि
177. तिलोयपण्णत्ती, 4 / 1629
178. त्रिलोकसार गाथा-883
179. तत्त्वार्थसूत्र, 3 / 28 180. तिलोयपण्णत्ती, 4 / 2170
181. वही, 4/2219
182. वही, 4/2277
183. वही, 4/1767
184. वही, 4/1726