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काल चक्र : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में
जाता है। इस काल के सभी जीव माँसाहारी होते है। ये मनुष्य मकान और वस्त्रों से रहित जंगलों में घूमते रहते हैं। पाप उदय से गूंगे, बहरे, अंधे, काणे, क्रूर, दरिद्री, काले, नंगे, कुबडे, हुण्डकसंस्थान वाले, अनेक प्रकार के रोगों से ग्रसित, दुर्गंधित शरीर युक्त, पापिष्ठ, परिवाररहित, पशुओं के समान आचरण करने वाले होते हैं। आचार्य यतिवृषभ कहते हैं -
दुक्खाण ताण कहिदु, को सक्कइ एक्क जीहाए 1159 अर्थात् उनके दुःखों को एक जिव्हा से कहने में कौन समर्थ है ? कोई नहीं ।
पाप के फल में ऐसे काल में जन्म होता है और यहाँ रहकर भी निरन्तर पाप करने से पुनः अधोगति की प्राप्ति होती है। इस संदर्भ में तिलोयपण्णत्ती 100 में यह नियम बताया है कि इस काल में जन्मे सभी जीव नियम से नरक-तिर्यंच गति से ही आते हैं और मरकर भी नरक-तिर्यंच गति में ही जाते हैं।
कल्पान्त काल (प्रलय) -
कल्प काल का प्रारंभ उत्सर्पिणी से होता है तथा अवसर्पिणी के छठे काल की समाप्ति के साथ ही कल्प काल भी समाप्त हो जाता है । उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी को मिलाकर एक कल्प काल होता है। कल्प काल समाप्त होने में जब 49 दिन शेष बचते हैं, तब यहाँ के सर्व प्राणियों में भयोत्पादक प्रलय काल 161 प्रारंभ
159. तिलोयपण्णत्ती, 4/1564 (उत्तरार्द्ध)
160. वही. 4/1563
161. वही, 4/1565