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काल चक्र : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में
दिन की आयु शेष है और यह अंतिम कल्की है।
तब चारों जन, चार प्रकार के आहार आदि का त्याग कर देते हैं और कार्तिक कृष्ण अमावस्या के दिन सूर्य के स्वाति नक्षत्र में रहते समाधि मरण पूर्वक देह त्याग कर सौधर्म स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं। मुनिराज एक सागरोपम की आयु लेकर तथा अन्य तीनों पल्योपम से कुछ अधिक आयु लेकर जन्मते हैं। 157
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उसी दिन मध्यान्ह में असुरकुमार जाति का कोई देव कल्की को मार डालता है और सूर्यास्त समय से अग्नि नष्ट हो जाती है।
अवसर्पिणी का छठा काल (अतिदुषमा)
अंतिम कल्की की मृत्यु के 3 वर्ष 8 माह 15 दिन पश्चात् अतिदुषमा नामक छठा काल प्रारंभ होता है। यह भी 21000 वर्ष का होता है। इसके प्रारंभ में मनुष्यों के शरीर की ऊँचाई तीन अथवा साढ़े तीन हाथ, पृष्ठ भाग की हड्डियाँ बारह और उत्कृष्ट आयु बीस वर्ष प्रमाण होती है। अवसर्पिणी काल के प्रभाव से इसमें क्रमशः ह्रास होते हुये छठे काल के अन्त में मनुष्यों की ऊँचाई मात्र एक हाथ प्रमाण तथा उत्कृष्ट आयु 15-16 वर्ष मात्र रह जाती है | 158
इस काल में जन्मे जीवों का जीवन अत्यन्त दुःखमय बीतता है। इस काल में अग्नि न होने के कारण जीवों को कच्चा भोजन ही करना पड़ता है। धान्य आदि का उत्पादन बन्द हो जाने से वृक्षादि की मूल और मछली आदि ही उनका मुख्य आहार हो
157. तिलोयपण्णत्ती, 4 / 1541-1553 (सारांश)
158. वही, 4 / 1557, 1575