Book Title: Kaalchakra Jain Darshan ke Pariprekshya me
Author(s): Sanjiv Godha
Publisher: A B D Jain Vidvat Parishad Trust

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Page 52
________________ काल चक्र : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में इस घटना को कोई असुरदेव अपने अवधिज्ञान से देखकर धर्मद्रोही कल्की को मार डालता है। उस कल्की का पुत्र अजितंजय 'रक्षा करो..रक्षा करो.. कहकर' देव के चरणों में नमस्कार करता है, और वह देव 'धर्मपूर्वक राज्य करो' कहकर उसकी रक्षा करता है। इसके पश्चात् कुछ वर्षों तक लोगों में धर्म की वृत्ति होती है, फिर वह पुनः हीन होती जाती है।154 ऐसी ही परिस्थिति प्रत्येक कल्की एवं उपकल्की के काल में बनती है। प्रत्येक कल्की के प्रति दुषमा (पंचम) कालवर्ती एक-एक साधु को अवधिज्ञान होता है। इस पंचम काल के प्रारंभ से ही विविध वनस्पतियाँ नीरस हो जाती है। मनुष्य अपने कुलक्रम से प्राप्त शील, सत्य, बल, तेज, तथा यथार्थ ज्ञान आदि गुणों से हीन पुरुषों की सेवा करते हैं, स्वयं मिथ्यात्व और मोह से ग्रस्त रहने के कारण मर्यादा और लज्जा से रहित हो जाते हैं। इस काल के मनुष्य विनय विहीन, चिन्तायुक्त, दम्भ, मद, क्रोध, लोभ एवं निर्दयता की मूर्ति दिखते हैं। इस काल में जीव पाप करके आते हैं और पापाचरण करते हुये ही जीवनयापन करते हैं।155 कुछ जीवों को पूर्व पुण्योदय से कुदान आदि के फल में बाहरी अनुकूलतायें भी प्राप्त होती दिखती है, फिर भी चित्त तो अशान्त ही रहता है। कुछ लोगों को जिनवाणी के अवलम्बन से तत्त्वाभ्यास करते हुये किंचित् शान्ति का अनुभव होता है, उनकी संख्या अत्यल्प है, वे विरले हैं। 154. तिलोयपण्णत्ती, 4/1523-1527 155. (1) वही, 4/1530-1535 का सार (2) लोक विभाग, 5/147-148

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