Book Title: Kaalchakra Jain Darshan ke Pariprekshya me
Author(s): Sanjiv Godha
Publisher: A B D Jain Vidvat Parishad Trust

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Page 53
________________ 52 काल चक्र : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में इस पंचम काल में संयम गुण से विशिष्ट मनुष्यों का अभाव होने के कारण यहाँ चारण ऋद्धिधारी मुनि, देव (वैमानिक) और विद्याधर भी नहीं आते। अंतिम कल्की - अभी वर्तमान में भरत एवं ऐरावत क्षेत्रों में पंचम काल चल रहा है, धीरे-धीरे यहाँ धर्म, आयु और ऊँचाई आदि कम होते जायेंगे, पश्चात् अन्त में इक्कीसवाँ कल्की उत्पन्न होगा। उस समय वीरांगज नामक एक भावलिंगी मुनिराज, सर्वश्री नामकी आर्यिका, अग्निल और पंगुश्री नामक श्रावक युगल होंगे। सर्वज्ञ कथित जिनागम में भविष्य की घटनाओं का नामोल्लेख सहित स्पष्ट निरूपण केवलज्ञान की विशिष्ट सामर्थ्य को बताता है। आगमों में प्रत्येक पंचम काल के अन्त में घटने वाली एक घटना का उल्लेख निम्नानुसार किया है - ___एक दिन कल्की अपने मंत्री से कहता है कि मंत्रिवर ! ऐसा कोई पुरुष तो नहीं है, जो मेरे वश में न हो। तब मंत्री कहता है कि राजन् ! एक मुनि आपके वश में नहीं है। तब कल्की राजा की आज्ञा होती है कि तुम उस मुनि के आहार में प्रथम ग्रास को शुल्क के रूप में ग्रहण करो। तत्पश्चात् कल्की की आज्ञा से प्रथम ग्रास माँगे जाने पर मुनीन्द्र तुरंत उसे देकर और अंतराय करके वापस चले जाते हैं और अवधिज्ञान को प्राप्त होकर उसी समय आर्यिका, श्रावक-श्राविका को बुलाकर प्रसन्नचित्त से कहते हैं कि अब दुषमा काल का अंत आ चुका है, तुम्हारी और हमारी तीन 156. तिलोयपण्णत्ती, 4/1537

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