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काल चक्र : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में और कहीं मद से धीमी चाल चलने वाले व्याघ्रों के युगल क्रीड़ा करते हैं। कहीं मनुष्यों के बराबर आयु को धारण करने वाले गाय, घोड़े और भैंसों के जोड़े अपनी इच्छानुसार अत्यधिक क्रीड़ा करते हैं ।109 वहाँ रहने वाले व्याघ्रादि भूमिचर और काक आदि नभचर तिर्यंच मांसाहार के बिना कल्पवृक्षों के मधुर फल भोगते हैं। मनुष्यों के समान तिर्यंचों के भी अपनी-अपनी योग्यतानुसार फल, कन्द, तृण और अंकुरादि के भोग होते हैं।110
इन कालों में पुरुष स्त्री को आर्या कहकर और स्त्री पुरुष को आर्य कहकर पुकारती है। आर्या और आर्य भोगभूमिज स्त्री-पुरुषों के साधारण नाम हैं। उस समय सबकी एक ही उत्तम जाति होती है। वहाँ ब्राह्मण आदि चार वर्ण नहीं होते और न ही असि–मसि आदि षट्कर्म होते हैं। वहाँ न सेवक-स्वामी का सम्बन्ध होता है और न वेषधारी साधु ही। वहाँ के प्राणी सब विषयों में मध्यस्थ रहते हैं, वहाँ न मित्र होते हैं और न शत्रु। वे सभी स्वभाव से ही अल्पकषायी होते हैं।111
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि भोगभूमि का काल उत्तम काल है, जहाँ प्राणियों को सर्व प्रकार की बाह्य अनुकूलतायें मिलती है, किन्तु यह प्रसिद्ध कहावत है कि 'सबै दिन जात न एक समाना' अर्थात् सभी दिन एक समान नहीं रहते। भोगभूमि का काल भी भरत एवं ऐरावत क्षेत्रों में एकसा नहीं रहता, समय के साथ-साथ सब कुछ बदल जाता है। भोगभूमि का काल उत्तम
109. हरिवंश पुराण, 7/99-101 110. तिलोयपण्णत्ती, 4/396-395 111. हरिवंश पुराण, 7/102-104