Book Title: Kaalchakra Jain Darshan ke Pariprekshya me
Author(s): Sanjiv Godha
Publisher: A B D Jain Vidvat Parishad Trust

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Page 38
________________ काल चक्र : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में से मध्यम एवं जघन्य होकर अब समापन की ओर बढ़ता है। इसमें लगभग 9 कोड़ाकोड़ी सागर का काल व्यतीत हो जाता है। तृतीय काल के अन्त में धीरे-धीरे कल्पवृक्षों की फलदान सामर्थ्य कम होने लगती है। अब युग परिवर्तन होना है, भोगभूमि समाप्त होगी और कर्मभूमि का प्रारंभ होगा। इस संधि काल में सृष्टि में बहुत बड़े प्राकृतिक परिवर्तन होने लगते हैं, इनसे भयभीत प्रजा की समस्याओं को दूर करने के लिये कुल परम्परा से धरातल पर विशिष्ट पुण्यशाली महापुरुषों का जन्म होता है, जिन्हें जैन परम्परा में कुलकरों के नाम से जाना जाता है। कुलकर व्यवस्था - भोगभूमि के अंतिम चरण में भरत एवं ऐरावत क्षेत्रों के आर्य खण्डों की भूमि पर अत्यन्त युगान्तरकारी प्राकृतिक एवं जैविक परिवर्तन होते हैं। इन परिवर्तनों से अनभिज्ञ एवं भयभीत मानव जाति को, इन परिवर्तनों के अनुकूल सामंजित होने का उपदेश देने वाले कुछ महापुरुषों का जन्म तृतीय काल के अंत में भरत एवं ऐरावत क्षेत्रों में होता है, जिन्हें जैन ग्रन्थों में मुख्यरूप से कुलकर कहकर पुकारा है, हिन्दू पुराणों में इनके लिये मनु शब्द का प्रयोग मिलता है। जैन आगमों में कहा है कि जब चतुर्थ काल प्रारंभ होने में पल्य का आठवाँ भाग शेष रहता है, तब क्रम से 14 कुलकर उत्पन्न होते हैं। सुषमादुषमा नामक तीसरा काल समाप्त होने में जब पल्य का आठवाँ भाग प्रमाण काल शेष रह गया तथा कल्पवृक्ष भी क्रम-क्रम से कम होने लगे तब इस भरत क्षेत्र की दक्षिण दिशा

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