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काल चक्र : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में होती हैं। पश्चात् इनमें से नरक जाने वालों के सम्यक्त्व छूट जाता है; किन्तु वे भी भविष्य में कभी न कभी पुनः सम्यक्त्व लेकर मोक्ष अवश्य जाते हैं।
तीर्थकर - जो धर्मतीर्थ का उपदेश देते हैं, समवशरण आदि विभूतियों से युक्त होते हैं और जिनके तीर्थकर नामकर्म33 नाम का महापुण्य का उदय होता है, उन्हें तीर्थंकर कहते हैं। चार घातिया कर्मों का अभाव होने से इनकी अरिहंत संज्ञा है। इनके जीवन में सर्वोत्कृष्ट पुण्योदय दिखाई देता है; इसलिये आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने इनके लिये पुण्णफलां अरहंता 34 शब्द का प्रयोग किया है।
प्रत्येक उत्सर्पिणी व अवसर्पिणी काल में 24 तीर्थंकर होते हैं। ये सभी जैन धर्म के प्रवर्तक हैं, सिद्धान्तों को बताने वाले हैं; बनाने वाले नहीं हैं। ये प्राणी मात्र को समान बताकर, सबके प्रति समभाव का उपदेश देते हैं। आचार्य प्रभाचन्द्र तीर्थंकर का स्वरूप स्पष्ट करते हुये लिखते हैं - _ 'तीर्थकृतः संसारोत्तरणहेतुभूतत्वात्तीर्थमिव तीर्थमागमः तत्कृतवतः । 135 अर्थात् संसार से तारने के कारणभूत हो, वह तीर्थ है, ऐसा तीर्थ आगम है, उसके कर्त्ता तीर्थकर हैं। धर्मतीर्थ को चलाने वाले होने से ये तीर्थंकर कहलाते हैं। इनकी बहुत बड़ी धर्मसभा होती है, जिसे समवशरण के नाम से जाना जाता है। 133. तीर्थकर नामकर्म – ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों में नामकर्म की एक प्रकृति।
इस कर्म के उदय में तीर्थंकरपना होता है। 134. प्रवचनसार, गाथा-45 135. समाधितंत्र, श्लोक-2 संस्कृत टीका