Book Title: Kaalchakra Jain Darshan ke Pariprekshya me
Author(s): Sanjiv Godha
Publisher: A B D Jain Vidvat Parishad Trust

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Page 45
________________ काल चक्र : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में इस काल में कल्पवृक्षों का पूर्णतः अभाव होता है और उनके स्थान पर नाना प्रकार की वनस्पतियाँ स्वयमेव उगने लगती हैं। पहले तो मानव जीवन इन्हीं पर आधारित रहा, किन्तु धीरे-धीरे जब इनका भी अभाव होने लगा तब मानव ने कृषि आदि श्रमपूर्ण कार्यों से अपनी आवश्यकतानुसार उनका उत्पादन आदि प्रारम्भ कर दिया। कृषि आदि षट् कर्मों की मुख्यता से ही इस काल को कर्मभूमि का काल कहा गया है। इस काल के प्रारंभ में उत्कृष्ट आयु 1 कोटि पूर्व की होती है, शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना (ऊँचाई) 525 धनुष तथा पृष्ठ भाग की हड्डियाँ अड़तालीस होती है।129 लोकविभाग में इनकी उत्कृष्ट ऊँचाई 500 धनुष बताई है।130 इनकी उत्कृष्ट आयु लगभग एक कोड़ाकोड़ी सागर काल तक क्रमशः घटते-घटते अन्त में 120 वर्ष रह जाती है। कर्म भूमि के सभी मनुष्य, तिर्यंचों की जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त होती है।131 तरेसठ शलाका पुरुष - इस चतुर्थ काल में भरत एवं ऐरावत क्षेत्र में पुण्योदय से मनुष्यों में श्रेष्ठ और सम्पूर्ण लोक में प्रसिद्ध 63 शलाका पुरुष - 24 तीर्थंकर, 12 चक्रवर्ती, 9 बलभद्र, 9 नारायण और 9 प्रतिनारायण उत्पन्न होते हैं। 32 ये सभी पदवियाँ सम्यग्दृष्टि जीवों को ही प्राप्त 129. तिलोयपण्णत्ती, 4/1288 130. लोकविभाग, 5/143 131. त्रिलोकसार, गाथा-330 132. (1) तिलोयपण्णत्ती, 4/517-518 (2) लोकविभाग, 5/142

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