Book Title: Kaalchakra Jain Darshan ke Pariprekshya me
Author(s): Sanjiv Godha
Publisher: A B D Jain Vidvat Parishad Trust

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Page 32
________________ काल चक्र : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में के लिये लोकविभाग में 'नवसहस्त्रेभविक्रमा' शब्द का प्रयोग करके नौ हजार हाथियों के सदृश बल की बात कही है। ___ ये किंचित् लाल हाथ-पैर वाले, नव चम्पक के फूलों की सुगन्ध से व्याप्त, मार्दव और आर्जव गुणों से संयुक्त, मन्दकषायी, सुशील होते हैं। इनका शरीर वज्रवृषभनाराच संहनन से युक्त और समचतुरस्र संस्थान वाला होता है। ये उदित होते हुये सूर्य सदृश तेजस्वी, कवलाहार करते हुये भी मल-मूत्र से रहित होते हैं। नर-नारी के अतिरिक्त इनका और कोई परिवार नहीं होता। उत्तम मुकुट को धारण करने वाले यहाँ के पुरुष इन्द्र से भी अधिक सुन्दराकार होते हैं और मणिमय कुण्डलों से विभूषित कपोलों वाली स्त्रियाँ अप्सराओं के सदृश अत्यन्त सुन्दर होती हैं।98 ___ ऐसे उत्तम अनुकूलताओं वाले काल में भी हम अनन्त बार जन्म-मरण कर चुके हैं; किन्तु आत्मभान बिना अशान्त ही रहे। ____ इस काल में आयु पूर्ण होने से 9 माह पूर्व ही स्त्री को गर्भ धारण होता है। तथा युगल पुत्र-पुत्री को जन्म देकर स्त्री-पुरुष दोनों का मरण हो जाता है। नवजात बालक-बालिका के शैय्या पर सोते हुये अपना अंगूठा चूसने में तीन दिन व्यतीत हो जाते हैं, पश्चात् तीन दिन में वे बैठना सीख जाते हैं, फिर तीन दिन तक अस्थिर गमन और अगले तीन दिनों में दौड़ने लगते हैं। फिर क्रमशः कलागुणों की प्राप्ति, तरुण अवस्था और सम्यक्त्व प्राप्ति 96. लोकविभाग, 5/26 97. तिलोयपण्णत्ती, 4/338-344 98. वही, 4/363

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