Book Title: Kaalchakra Jain Darshan ke Pariprekshya me
Author(s): Sanjiv Godha
Publisher: A B D Jain Vidvat Parishad Trust

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Page 34
________________ काल चक्र : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में 33 तीन कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण सुषमा नामक इस दूसरे काल के प्रारंभ में मनुष्यों के शरीर की ऊँचाई 4000 धनुष (दो कोस), आयु दो पल्य और शरीर की प्रभा पूर्णचन्द्र सदृश होती है। इनके पृष्ठभाग में एक सौ अट्ठाईस हड्डियाँ होती हैं। स्त्रियाँ अप्सराओं सदृश और पुरुष देवों सदृश होते हैं। इस काल में मनुष्य समचतुरस्र संस्थान ये युक्त होते हुए दो दिन बाद तीसरे दिन बहेड़ा फल बराबर अमृतमय आहार करते हैं । 104 जन्म के उपरान्त युवा होने तक का जो क्रम उत्तम भोगभूमि में 3-3 दिन के अन्तराल से सात चरणों में बताया गया था, वही क्रम यहाँ मध्यम भोगभूमि (सुषमा नामक दूसरे काल) में 5-5 दिन के विकास क्रम में होता है। अर्थात् बालकों के शैय्या पर सोते हुए अपना अंगूठा चूसने, बैठने, अस्थिर गमन, स्थिर गमन, कलागुणों की प्राप्ति, तारुण्य और सम्यक्त्व ग्रहण की योग्यता इनमें प्रत्येक अवस्था में पाँच-पाँच दिन लगते हैं। 105 इस प्रकार यहाँ के जीव जन्म के पश्चात् मात्र 35 दिन में सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के योग्य हो जाते हैं 1 भोगभूमि संबंधी शेष वर्णन उत्तम भोगभूमि के समान ही है। इस काल के प्रारंभ से अंत तक की परिस्थितियों में भी अवसर्पिणी काल होने से बल, आयु, शरीर आदि का ह्रास देखा जाता है। इस प्रकार तीन कोड़ाकोड़ी सागर व्यतीत होने पर यह काल समाप्त हो जाता है । 104. तिलोयपण्णत्ती, 4/ 400-402 105. वही, 4/ 403-404

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