Book Title: Kaalchakra Jain Darshan ke Pariprekshya me
Author(s): Sanjiv Godha
Publisher: A B D Jain Vidvat Parishad Trust

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Page 23
________________ 22 काल चक्र : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में के बाद शुक्ल पक्ष और शुक्ल पक्ष के बाद कृष्ण पक्ष आता है, उसीतरह अवसर्पिणी के बाद उत्सर्पिणी और उत्सर्पिणी के बाद अवसर्पिणी काल आता है। कृष्ण एवं शुक्ल पक्ष के समान कालचक्र परिवर्तन की बात रविषेणाचार्य ने पद्म पुराण में भी की है। तिलोयपण्णत्ती में भरत एवं ऐरावत क्षेत्रों में रँहट-घटिका न्याय की तरह अनन्तानन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी होने का उल्लेख है। ये क्रम सदा चलता ही रहता है। इस कालचक्र के क्रम को चित्र द्वारा निम्नानुसार देखा जा सकता है - 208 छाकाल । पहलाकाल सुषमा सुषमा सुषमा सुषमा (४ कोड़ाकोड़ी सागर) |(४ कोड़ाकोड़ी सागर) वाकाल उत्सर्पिणी दूसराकाल सुषमा सुषमा NAREERRIERSEASPASSSS कालचक्र (३ कोड़ाकोड़ी साग अवसर्पिणी ३ कोडाकोड़ी सागर) सुषमा दषमा चौथाकाल (४२ हजार वर्ष कम तीसरा काल १ कोड़ाकोड़ी सागर) that Ihn2 १ काडाकोड़ी सागर), चौथा काल (४२ हजार वर्ष कम दुषमा सुषमा (२ कोड़ाकोड़ी सागर) सुषमा दुषमा तीसराकाल (२ कोडाकोड़ी सागर) नाशं पाला काल SENSESER SANE जारी काल Staminate 66. पद्मपुराण, प्रथम भाग, 3/73 67. रँहट घटिका न्याय- जैसे रँहट की घड़ियाँ चक्रवत् घूमती हुई बार-बार ऊपर एवं नीचे आती-जाती हैं, उसीप्रकार अवसर्पिणी के बाद उत्सर्पिणी और उत्सर्पिणी के बाद अवसर्पिणी – इन कालों का परिवर्तन होता ही रहता है। 68. तिलोयपण्णत्ती, 4/1636

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