Book Title: Kaalchakra Jain Darshan ke Pariprekshya me
Author(s): Sanjiv Godha
Publisher: A B D Jain Vidvat Parishad Trust

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Page 29
________________ 28 काल चक्र : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में वस्त्र) एवं उत्तम क्षौम (रेशमी) वस्त्र तथा मन और नेत्रों को आनन्दित करने वाले नाना प्रकार के अन्य वस्त्र देते हैं। 5. भोजनांग - इस जाति के कल्पवृक्ष सोलह प्रकार का आहार, सोलह प्रकार के व्यंजन, चौदह प्रकार के सूप (दाल आदि) चौवन के दुगुने (108) प्रकार के खाद्य पदार्थ, तीन सौ तिरेसठ प्रकार के स्वाद्य पदार्थ एवं तिरेसठ प्रकार के रस भेद पृथक्-पृथक् दिया करते हैं। 6. आलयांग - इस जाति के कल्पवृक्ष स्वस्तिक एवं नन्द्यावर्त आदि सोलह प्रकार के रत्नमय और सुवर्णमय रमणीय दिव्य भवन दिया करते हैं। __7. दीपांग - इस जाति के कल्पवृक्ष प्रासादों में शाखा, प्रवाल, फल, फूल और अंकुरादि के द्वारा जलते हुये दीपकों के सदृश प्रकाश देते हैं। 8. भाजनांग - इस जाति के कल्पवृक्ष स्वर्ण एवं बहुत प्रकार के रत्नों से निर्मित थाल, झारी, कलश, गागर, चामर और आसनादिक प्रदान करते हैं। 9. मालांग - इस जाति के कल्पवृक्ष बल्ली, तरु, गुच्छों और लताओं से उत्पन्न हुए सोलह हजार भेदरूप पुष्पों की विविध मालायें देते हैं। 10. तेजांग/ज्योतिरांग - इस जाति के कल्पवृक्ष मध्य दिन के करोड़ों सूर्यों की किरणों के सदृश होते हुए नक्षत्र, चन्द्र और सूर्यादि की कान्ति का संहरण करते हैं।

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