Book Title: Kaalchakra Jain Darshan ke Pariprekshya me
Author(s): Sanjiv Godha
Publisher: A B D Jain Vidvat Parishad Trust

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Page 26
________________ काल चक्र : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में 25 मनुष्य- तिर्यंच मरकर भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवों में तथा सम्यग्दृष्टि मनुष्य - तिर्यंच मरकर सौधर्म युगल में उत्पन्न होते हैं। इससे ऊपर नहीं जाते। इन कालखण्डों में जन्म लेने वाले मनुष्यादि प्राणियों का जीवन भोग प्रधान रहता है। इस समय प्रकृति इतनी सम्पन्न होती है कि उसके निवासियों को जीवन यापन के लिये किसी भी प्रकार के कृषि, मसि, व्यापार, उद्योग, शिल्प अथवा असि आदि कर्म की आवश्यकता नहीं होती । प्रकृति से सहजरूप से प्राप्त भोग्य सामग्री का उपभोग करना ही उनका कार्य रहता है। सभी सामग्री उनको संकल्प मात्र से कल्पवृक्षों द्वारा प्राप्त हो जाती है। कल्पवृक्षों का स्वरूप - भोगभूमि में उत्पन्न हुये जीवों को मनवांछित पदार्थ कल्पवृक्ष से प्राप्त हो जाते हैं। पुण्यात्मा पुरुषों को मनचाहे भोग देने में समर्थ होने से ही ज्ञानियों ने इसकी कल्पवृक्ष संज्ञा सार्थक कही है। 83 इन भोगभूमियों में जन्मे युगल कल्पवृक्षों द्वारा दी गई वस्तुओं को ग्रहण करके और विक्रिया द्वारा बहुत प्रकार के शरीर बना कर अनेक भोग भोगते हैं । 4 इनके भोगों की बाहुल्यता बताते हुये आचार्य यतिवृषभदेव लिखते हैं - ‘जुगलाणि अणंतगुणं, भोगं चक्कहर भोग लाहादो | 85 82. तिलोयपण्णत्ती, 4 / 382 83. आदिपुराण, 3/38 84. तिलोयपण्णत्ती, 4/362 85. वही, 4/361 (पूर्वार्द्ध)


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