Book Title: Kaalchakra Jain Darshan ke Pariprekshya me Author(s): Sanjiv Godha Publisher: A B D Jain Vidvat Parishad Trust View full book textPage 9
________________ काल चक्र : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में जिनागम में बहुप्रदेशी द्रव्यों को अस्तिकाय कहा है; अत: काल को छोड़कर शेष पाँच द्रव्य अस्तिकाय' कहलाते हैं। काल को धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय के समान लोकव्यापी एक अखण्ड द्रव्य नहीं माना जा सकता; क्योंकि इसे अनेक द्रव्य माने बिना जगत के विभिन्न क्षेत्रों में काल भेद संभव नहीं है। आकाश के प्रत्येक प्रदेश पर समय भेद इसे अनेक द्रव्य माने बिना नहीं बन सकता। भरत-ऐरावत क्षेत्र में दिन एवं उसी समय विदेह क्षेत्र में रात्रि रूप व्यवहार से भी काल द्रव्य की अनेकता सिद्ध होती है। - सूर्य-चन्द्रादि मनुष्य क्षेत्र में निरन्तर सुमेरु पर्वत की प्रदक्षिणा'? देते रहते हैं, इसी के कारण काल का विभाग अर्थात् दिन-रात की व्यवस्था बनती है। मनुष्य लोक अर्थात् ढाई द्वीप के बाहर सूर्य-चन्द्रादि गमन नहीं करते; अतः बाहर दिन-रात का परिवर्तन भी नहीं होता। वहाँ सदैव एक समान परिस्थिति रहती है। यही कारण है कि आचार्य हरिभद्रसूरि काल द्रव्य का सद्भाव मनुष्य लोक में ही मानते हैं। उनका कहना है 'मनुष्यलोकाबहिः कालद्रव्यं नास्ति' अर्थात् मनुष्य लोक के बाहर काल द्रव्य नहीं है। काल को जब आकाश प्रदेशों पर 'रयणाणं रासी इव'15 11. बृहद् द्रव्यसंग्रह, गाथा-23 12. 'मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके ।' – तत्त्वार्थसूत्र, 4/13 13. 'तत्कृतः कालविभागः। - वही, 4/14 14. षड्दर्शनसमुच्चय, 4/49/177/पृ. 253 15. द्रव्यसंग्रह, गाथा-22Page Navigation
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