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काल चक्र : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में उत्सर्पिणी और जिसमें अवनति हो, वह अवसर्पिणी है।
(4) उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यौ द्वौ भेदौ तस्य कीर्तितौ। ___उत्सर्पादवसंपच्चि बलायुर्देहवर्मणाम् ।। जिसमें मनुष्यों के बल, आयु और शरीर का प्रमाण क्रम-क्रम से बढ़ता जाये, उसे उत्सर्पिणी कहते हैं और जिसमें वे क्रम-क्रम से घटते जायें, उसे अवसर्पिणी कहते हैं।
(5) जब बाहुबल, वैभव, मनुष्य शरीर, धर्म, ज्ञान, गाम्भीर्य और धैर्य बढ़ते हैं तो उत्सर्पिणी काल होता है, और जब ये घटते हैं, तब अवसर्पिणी काल होता है। ___(6) पंच भरत एवं पंच ऐरावत क्षेत्रों में स्थित जीवों के शरीर की ऊँचाई, आयु और बल की क्रमशः अवसर्पिणी में हानि और उत्सर्पिणी काल में वृद्धि होती है।
अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी कालों का प्रमाण
दोनों ही काल छह-छह प्रकार के हैं। अवसर्पिणी काल - सुषमासुषमा, सुषमा, सुषमादुःषमा, दुःषमासुषमा, दुःषमा और अतिदुषमा (दुषमादुषमा) के भेद से छह प्रकार का है तथा उत्सर्पिणी काल अतिदुषमा से प्रारंभ करके क्रमशः बढ़ता हुआ सुषमासुषमा तक जाता है। दोनों ही कालों का प्रमाण दस-दस कोड़ाकोड़ी सागरोपम है। दोनों को मिलाकर एक कल्पकाल
47. आदिपुराण, 3/14 48. आचार्य पुष्पदन्त : महापुराण, भाग-1, संधि-2/8/पृ.31 49. त्रिलोकसार, गाथा 19