Book Title: Kaalchakra Jain Darshan ke Pariprekshya me
Author(s): Sanjiv Godha
Publisher: A B D Jain Vidvat Parishad Trust

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Page 17
________________ 16 काल चक्र : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में काल - भूत, वर्तमान और भविष्य के भेद से तीन प्रकार का कहा गया है। निश्चय काल का कथन करने पर काल संज्ञा मुख्य तथा भूतकाल आदि का व्यपदेश (कथन) गौण रहता है तथा व्यवहार काल का कथन करने पर भूतकाल आदिरूप संज्ञा मुख्य है और काल संज्ञा गौण है। आचार्य अमृतचन्द्र ने भी 'अतीतानागतवर्तमान भेदात् त्रिधा वा41 कहकर व्यवहार काल को तीन भेद वाला बताया है। आदिपुराण में कहा है कि संसार का व्यवहार चलाने में समर्थ होने से भूत, भविष्यत और वर्तमान रूप से व्यवहार काल की कल्पना की है। इन तीनों कालों की परिभाषा बताते हुये आचार्य नेमीचन्द्र कहते हैं कि सिद्ध राशि को संख्यात आवली के प्रमाण से गुणा करने पर जो प्रमाण हो, उतना ही अतीत/भूतकाल का प्रमाण है। वस्तुतः हर छह महीना आठ समय में छह सौ आठ जीव मुक्ति/सिद्धदशा प्राप्त करते हैं। अतः सिद्ध राशि को छह महीना आठ समय से गुणा करके 608 का भाग देने पर अतीत काल का प्रमाण संख्यात आवलि गुणित सिद्धराशि प्राप्त होता है। वर्तमान काल का प्रमाण एक समय मात्र है। तथा सम्पूर्ण जीव राशि व समस्त पुद्गलद्रव्य राशि से भी अनंतगुणा भविष्यत काल का प्रमाण है। यह व्यवहार काल वर्तमान की अपेक्षा उत्पन्नध्वंसी और भूत-भविष्य की अपेक्षा दीर्घान्तरस्थायी अर्थात् लम्बे समय तक रहने वाला है। 41. नियमसार, गाथा-31 टीका 42. आदिपुराण, 3/11 43. गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा-578-580

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