Book Title: Kaalchakra Jain Darshan ke Pariprekshya me
Author(s): Sanjiv Godha
Publisher: A B D Jain Vidvat Parishad Trust

View full book text
Previous | Next

Page 15
________________ 14 काल चक्र : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में 3. संख्यात, असंख्यात और अनन्त काल - 'जैन आगमों36,37 में दो को जघन्य संख्यात तथा अचलात्म को उत्कृष्ट संख्यात कहा है। इन दोनों के बीच की संख्याओं को मध्यम संख्यात कहा गया है। उत्कृष्ट संख्यात काल का 150 अंक प्रमाण उक्त माप निकालने के लिये बुद्धि कल्पित एक लाख योजन विस्तारवाले और एक हजार योजन गहरे - शलाका, प्रतिशलाका, महाशलाका तथा अनवस्था नामक चार कुण्ड स्थापित कर उनमें सरसों के दानों को आधार बनाकर विस्तार से समझाया है। यह 150 अंक प्रमाण उत्कृष्ट संख्यात चौदह पूर्व के ज्ञाता श्रुतकेवली के ज्ञान का विषय है। उत्कृष्ट संख्यात में एक जोड़ देने पर जघन्य असंख्यात हो जाता है। यहाँ असंख्यात के भी नौ भेद बताये गये हैं। जघन्य परितासंख्यात, मध्यम परितासंख्यात, उत्कृष्ट परितासंख्यात, जघन्य युक्तासंख्यात, मध्यम युक्तासंख्यात, उत्कृष्ट युक्तासंख्यात, जघन्य असंख्यातासंख्यात, मध्यम असंख्यातासंख्यात और उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात। यह उत्कृष्ट असंख्यात अवधि ज्ञान का विषय है।38 उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात में एक जोड़ देने पर जघन्य अनन्त होता है। इसके भी नौ भेद बताये गये हैं। जघन्य परितानंत, मध्यम परितानंत, उत्कृष्ट परितानंत, जघन्य युक्तानंत, 36. तिलोयपण्णत्ती, 4/313 व टीका का सार 37. तत्त्वार्थ राजवार्तिक. 3/38, पृष्ठ-206 38. (1) तिलोयपण्णत्ती, 4/314 एवं टीका से (2) तत्त्वार्थ राजवार्तिक, 3/38/पृ. 206/पं. 30

Loading...

Page Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74