Book Title: Kaalchakra Jain Darshan ke Pariprekshya me
Author(s): Sanjiv Godha
Publisher: A B D Jain Vidvat Parishad Trust

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Page 16
________________ 15 काल चक्र : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में मध्यम युक्तानंत, उत्कृष्ट युक्तानंत, जघन्य अनंतानंत, मध्यम अनंतानंत और उत्कृष्ट अनंतानंत। यह अनंत केवलज्ञान का विषय है। छदमस्थ के ज्ञान का विषय नहीं है। । निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि मतिज्ञान, श्रुतज्ञान के माध्यम से जहाँ तक की गणना को जाना जा सके, वह संख्यात है। इससे अधिक जहाँ तक की गणना अवधिज्ञान-मनःपर्यय ज्ञान का विषय बने, वह असंख्यात है। इससे अधिक जिसे सिर्फ केवलज्ञान के माध्यम से जाना जा सके, वह अनंत है। इसप्रकार आत्मा के ज्ञान नामक एक गुण की एक समय की पर्याय में अपरिमित अनंत काल को जानने की सामर्थ्य है। इससे ज्ञान गुण की सामर्थ्य एवं ज्ञान जैसे अनंत गुण जिस आत्मा में हैं - ऐसे आत्मा की सामर्थ्य का अनुमान लगाया जा सकता है। अनंत सामर्थ्यवान होकर भी यह जीव अपनी प्रभुता को न पहिचानने के कारण ही अनंत दुःख भोग रहा है। 4. भूत, वर्तमान और भविष्य काल - व्यवहार काल के भूत, वर्तमान, और भविष्य के रूप में तीन भेद भी किये गये हैं। आचार्य पूज्यपाद कहते हैं - ‘स त्रिधा व्यवतिष्ठते-भूतो वर्तमानो भविष्यन्निति। तत्र परमार्थकाले कालव्यपदेशो मुख्यः, भूतादिव्यपदेशो गौणः । व्यवहारकाले भूतादिव्यपदेशो मुख्यः, कालव्यपदेशो गौणः। 40 अर्थात् वह 39. (1) तिलोयपण्णत्ती, 4/315 एवं टीका से (2) तत्त्वार्थ राजवार्तिक, 3/38/पृ. 206/पं. 31 40. सर्वार्थसिद्धि, 5/22/569/पृ. 223

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