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काल चक्र : जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आचार्य अमृतचन्द्र ने निम्नानुसार की है - असंख्य समय
1 निमिष 8 निमिष
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1 काष्ठा 16 काष्ठा
1 कला 32 कला
1 घड़ी 60 घड़ी
1 अहोरात्र 30 अहोरात्र
1 मास 2 मास
1 ऋतु 3 ऋतु
= 1 अयन (छ: मास) 2 अयन
= 1 वर्ष काल का सबसे छोटा अविभागी अंश समय के नाम से जाना जाता है, इसका परिमाण बताते हुये कहा है कि पुद्गल के परमाणु को आकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश पर गमन में जो अविभागी काल लगता है, वह समय है। लोक विभाग में एक परमाणु द्वारा दूसरे परमाणु को लाँघने में लगे काल को समय कहा है। जैनाचार्यों ने 150 अंक प्रमाण वर्षों के काल को उत्कृष्ट संख्यात काल कहा है और इसे अचलात्म4 संज्ञा से संबोधित किया है। वर्ष से लेकर अचलात्म तक के कालांशों की चर्चा को आचार्य यतिवृषभ ने तिलोयपण्णत्ती में विस्तार से बताया है।
31. नियमसार, गाथा-31 टीका 32. तिलोयपण्णत्ती, 4/288 33. लोकविभाग, 6/201 34. तिलोयपण्णत्ती, 4/312 35. वही, 4/294 से 312 का सार