Book Title: Kaalchakra Jain Darshan ke Pariprekshya me Author(s): Sanjiv Godha Publisher: A B D Jain Vidvat Parishad Trust View full book textPage 6
________________ जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में - काल चक्र 'काल' बहुत प्रचलित शब्द है। इसका प्रयोग विभिन्न अर्थों में होता है। यहाँ हम जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में काल द्रव्य की चर्चा करते हुये षट् काल रूप चक्र का विस्तृत निरूपण करेंगे। यद्यपि नैयायिक, वैशेषिक, बौद्ध, सांख्य, योग आदि भारतीय दर्शनों के अतिरिक्त पाश्चात्य दार्शनिकों ने भी किसी न किसी रूप में काल को स्वीकार किया है; किन्तु जैसा सूक्ष्म एवं विशद विवेचन जैन दार्शनिकों ने किया है, वैसा अन्यत्र मिलना दुर्लभ है। ___ जैन दर्शनानुसार काल का क्या स्वरूप है, उसके कितने भेद-प्रभेद हैं ? अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी रूप काल चक्र किस प्रकार बदलता रहता है ? कौनसे क्षेत्रों में कौनसा काल वर्तता है ? विभिन्न कालों में मनुष्यादि की ऊँचाई, आयु आदि की विविधता के साथ-साथ उन कालों की विशिष्ट परिस्थितियाँ, भोग भूमि, कर्म भूमि, कल्पवृक्षों का स्वरूप, कुलकर व्यवस्था, युग प्रवर्तक तीर्थंकर-चक्रवर्ती आदि शलाका पुरुष, धर्म विध्वंस की चेष्टा करने वाले कल्की एवं अर्द्धकल्की, सृष्टि प्रलय का स्वरूप, पुनः सृष्टि सृजन, हुण्डावसर्पिणी काल की विचित्रतायें आदि अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों को यहाँ रोचक ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। अंत में विविध जिज्ञासाओं का समुचित समाधान खोजते हुये दृष्टि को स्वभाव सन्मुख करने की प्रेरणा दी है; यही उपादेय है।Page Navigation
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