Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji

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Page 12
________________ आग्नेयी, वारुणी, वायवी और तत्त्वभू –इन पाँच प्रकार की धारणाओं का जैन-परम्परा में कैसे विकास हुआ है और यह किस परम्परा का प्रभाव था ? यह विचारणीय है, क्योंकि मूलग्रन्थ में और उसकी हरिभद्र की टीका में धर्मध्यान की इन चार अवस्थाओं एवं पाँच धारणाओं की कोई चर्चा भी नहीं मिलती है। क्रमानुगत शुक्लध्यान की चर्चा करते हुए इसमें यह भी देखा गया है कि शुक्लध्यान किन अवस्थाओं में सम्भव होता है और उस समय उसके ध्याता की मानसिकस्थिति किस प्रकार की होती है। __पंचम अध्याय में मूलतः ध्यानशतक और स्थानांग, भगवती, औपपातिक, तत्त्वार्थ, मूलाचार, भगवती-आराधना, धवला तथा आदिपुराण का तुलनात्मक विवरण, तत्पश्चात् ध्यान की उपलब्धियों अथवा ऋद्धियों की चर्चा की गई है, साथ ही यह भी देखने का प्रयत्न किया गया है कि जैन-परम्परा में इन लब्धियों की चर्चा किसके प्रभाव से आई है। तदनन्तर, ध्यान और कायोत्सर्ग, कायोत्सर्ग और समाधि की चर्चा करके प्रस्तुत अध्याय को समाप्त किया गया है। षष्ठ अध्याय तुलनात्मक रूप में है। यह ध्यान के ऐतिहासिक विकास-क्रम से सम्बन्धित होगा और इसमें इस ग्रन्थ के पूर्ववर्ती ग्रन्थों का इस पर कितना प्रभाव एवं समरूपता है -यह देखा गया है, साथ ही परवर्ती ग्रन्थों में जो ध्यान का विकास किस रूप में हुआ है और वे इससे किस रूप में प्रभावित हुए हैं, यह भी समझाने का प्रयत्न किया गया है। तत्पश्चात्, जैन, बौद्ध और हिन्दू-परम्परा के ध्यान तथा योग के सन्दर्भ में किस प्रकार की समरूपताएँ एवं विभिन्नताएँ रही हुई हैं, इसका तुलनात्मक-विवरण प्रस्तुत किया गया है। अन्त में, तान्त्रिक-साधना और जैन-ध्यान-साधना पर प्रकाश डाला गया है। अंतिम अध्याय उपसंहार के रूप में रहा है। इसमें यह बताने का प्रयत्न किया गया है कि ध्यान-साधना के माध्यम से मानव-जाति को तनावमुक्त किस तरह बनाया जा सकता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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