Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji

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Page 11
________________ द्वितीय अध्याय ध्यान की परिभाषा, जैन-परम्परा तथा अन्य-परम्परा के अनुसार ध्यान का स्वरूप और प्रस्तुत ग्रन्थ में ध्यान की परिभाषा से सम्बन्धित है। इस अध्याय में मूलग्रन्थ और उसकी हरिभद्रीय टीका के आधार पर ध्यान के प्रकार, चार ध्यानों के शुभत्व और अशुभत्व का प्रश्न, आर्तध्यान और रौद्रध्यान बन्धन के हेतु तथा अन्त में साधना की दृष्टि से धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान का स्थान और महत्त्व का वर्णन किया गया है। तृतीय अध्याय में मुख्य रूप से मूलग्रन्थ और उसकी टीका के आधार पर चारों ध्यानों के स्वरूप, लक्षणों एवं उपप्रकारों को समझाया गया है। इस अध्ययन में हम यह भी देखेंगे कि मूल आगमिक-परम्परा से इस ग्रन्थ और उसकी टीका में हरिभद्र ने कितना और क्या लिया है, साथ-ही-साथ धर्मध्यान के विभिन्न द्वार और शुक्लध्यान के द्वारों की चर्चा की गई है। इसी क्रम में, आगे आर्तध्यान और रौद्रध्यान के चिन्तन के विषय और धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान के आलंबन पर प्रकाश डाला गया है। अन्त में, ध्यान के आलंबन की चर्चा करते हुए यह स्पष्ट किया गया है कि सालंबन ध्यान से निरालंबन ध्यान की ओर कैसे बढ़ा जा सकता है। दूसरे शब्दों में, ध्यान के क्षेत्र में कहाँ आलंबन की आवश्यकता है और कहाँ एवं किन परिस्थितियों में आलम्बनों की आवश्यकता नहीं है, यह निर्णय करना होगा। चतुर्थ अध्याय में ध्यान के स्वामी को लेकर चर्चा की गई है। ध्याता और ध्यातव्य में भेदाभेद का प्रश्न, ध्याता के आध्यात्मिक-विकास की विभिन्न भूमिकाओं अर्थात् चौदह गुणस्थानों में से किस गुणस्थानक से किस गुणस्थानक तक कौन-से ध्यान-साधक की मनोस्थिति किस प्रकार रहती है, यह समझना आवश्यक है। इसी प्रसंग में यह भी स्पष्ट किया गया है कि आर्तध्यान एवं रौद्रध्यान में मूलभूत अन्तर क्या हैं और उनमें किस कषाय की प्रमुखता रहती है। इसी क्रम में, धर्मध्यान के स्वामी की चर्चा करते हुए यह भी देखने का प्रयत्न किया है कि इस सम्बन्ध में दिगम्बर-परम्परा और श्वेताम्बर-परम्परा में क्या मतभेद रहे हुए हैं और वे मतभेद क्यों हैं ? साथ में, यह अध्याय यह भी स्पष्ट करेगा कि धर्मध्यान में पिण्डस्थ, ‘पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत ध्यानों तथा पार्थिवी, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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