Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan
Author(s): Priyashraddhanjanashreeji
Publisher: Priyashraddhanjanashreeji

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Page 9
________________ मेरा यह अध्ययन इसी टीका-ग्रन्थ पर आधारित है, किन्तु इसे मैंने मात्र विवरणात्मक न रखकर तुलनात्मक बनाने का प्रयत्न किया है और यह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है कि इस आगमिक-ग्रन्थ का प्रभाव किस रूप में है तथा इसने अपने परवर्ती लेखकों को कैसे प्रभावित किया है। जैसा मैं पूर्व में ही संकेत कर चुकी हूँ कि मानव-जगत की आज की प्रमुख समस्या तनावग्रस्तता है और समाज में जब एक व्यक्ति तनावग्रस्त होता है, तो वह दूसरों को भी तनावग्रस्त कर देता है। परिणामतः, आज सम्पूर्ण विश्व ही तनावग्रस्त है, अतः तनावमुक्ति आज की प्राथमिक आवश्यकता बन गई है, जो ध्यान के द्वारा ही सम्भव है। इसलिए इस अध्ययन का औचित्य निर्विवाद है। दूसरी प्रमुख बात यह है कि आज शोध के क्षेत्र में ग्रन्थाधारित शोध-कार्य कम ही हो रहे हैं। इस शोध-कार्य का औचित्य यह है कि इसके माध्यम से हम जैन-परम्परा में ध्यान के सन्दर्भ में जो प्राचीनतम स्थिति रही है, उसे समझ सकें। दूसरा यह है कि इस शोध कार्य के माध्यम से आचार्य हरिभद्र ने अपनी टीका में योग-परम्परा और जैन–परम्परा के ध्यान के सम्बन्ध में जो समन्वय के अनेक सूत्र प्रस्तुत किए हैं, उन्हें भी समझा जा सके। तीसरे यह कि मूल ग्रन्थ से टीका में ध्यान से सम्बन्धित अवधारणाओं का विकास किस रूप में हुआ है, इसे भी समझा जा सके। प्रस्तुत अध्ययन का मूलभूत उद्देश्य यह है कि जैन–परम्परा में ध्यान की क्या प्रक्रिया रही है और उस पर अन्य परम्पराओं का प्रभाव कैसे आया है ? यह देखना है, किन्तु इसके साथ-साथ इस अध्ययन का एक अन्य उद्देश्य ध्यान के प्रायोगिक पक्ष को लेकर भी है। यद्यपि विपश्यना और प्रेक्षा की पद्धतियाँ मूल-आगमों में सांकेतिक रूप में ही उपलब्ध हैं, उन संकेतों के आधार पर ध्यान की वर्तमान पद्धतियों का विकास कैसे और किस रूप में रहा है, यह समझना भी प्रस्तुत शोध का उद्देश्य है। आचार्य हरिभद्र ने ध्यान की आगमिक-धारा को किस प्रकार विकसित कर उसे योग की परम्परा के साथ जोड़ा है, इसे भी इस शोधकार्य के माध्यम से सम्यक् रूप से समझा जा सकेगा। मूल ग्रन्थ को आधारभूत बनाकर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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