Book Title: Jinbhadragani Krut Dhyanshatak evam uski Haribhadriya Tika Ek Tulnatmak Adhyayan Author(s): Priyashraddhanjanashreeji Publisher: Priyashraddhanjanashreeji View full book textPage 7
________________ ध्यानशतक के पूर्व 'तत्त्वार्थ' में भी ध्यान-सम्बन्धी संक्षिप्त विवरण पाए जाते हैं, फिर भी ध्यान के क्षेत्र में जैन-परम्परा की दृष्टि से जो विशिष्ट विवरण ध्यानशतक में उपलब्ध है, वह विशिष्ट तो है ही, साथ ही, प्राचीन भी है। यद्यपि भगवतीसूत्र और औपपातिकसूत्र में भी ध्यान-सम्बन्धी कुछ उल्लेख मिलते हैं, किन्तु फिर भी ये विवरण संक्षिप्त ही हैं। इस ग्रन्थ के महत्त्व एवं मूल्यवत्ता को ध्यान में रखकर ही आचार्य हरिभद्र ने अपने 'आवश्यकसूत्र की टीका' में इस सम्पूर्ण ग्रन्थ को ही उद्धृत किया है। इसी प्रकार, दिगम्बर-परम्परा में षटखण्डागम की टीका 'धवला' में भी आचार्य वीरसेन ने ध्यानशतक की कुछ गाथाएँ अवतरित कीं। इसका उल्लेख पं. बालचन्द्रजी शास्त्री ने किया है। इतना निश्चित है कि लगभग दसवीं शताब्दी तक जैन–परम्परा में ध्यान के सन्दर्भ में ध्यानशतक के अतिरिक्त किसी भी स्वतन्त्र ग्रन्थ की रचना नहीं हुई थी। दिगम्बर-परम्परा में 'ध्यानस्तव' नामक जो ग्रन्थ 'भास्करनन्दी' के द्वारा लिखा गया, वह भी बारहवीं शताब्दी का है और इसके कुछ पूर्व आचार्य शुभचन्द्र के 'ज्ञानार्णव' में (लगभग ग्यारहवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध) ध्यान की विशिष्ट चर्चा हुई, फिर भी यह ध्यान के सम्बन्ध में स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं कहा जा सकता है। इसी प्रकार, बारहवीं शताब्दी में श्वेताम्बर-परम्परा में आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में भी ध्यान की विस्तृत चर्चा की, किन्तु इसे भी ध्यान का स्वतन्त्र ग्रन्थ तो नहीं माना जा सकता है। बारहवीं शताब्दी के पश्चात् जैन एवं जैनेतर तान्त्रिक-ग्रन्थों में भी ध्यान के सन्दर्भ में यत्र-तत्र कुछ संकेत मिलते हैं, किन्तु कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ इस सम्बन्ध में लिखा गया हो -ऐसा मेरी जानकारी में नहीं आया है। ध्यान से सम्बन्धित स्वतंत्र ग्रन्थों के रूप में श्वेताम्बर–परम्परा में ध्यानशतक और दिगम्बर-परम्परा में ध्यानस्तव -ये दो ही ग्रन्थ मेरी जानकारी में हैं। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर-परम्परा में उपाध्याय यशोविजयजी ने 'अध्यात्मसार' नामक अपने ग्रन्थ में 'ध्यानस्तुति-अधिकार' ऐसा एक स्वतन्त्र विभाग रखा है, किन्तु उसे भी ध्यान का स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं कहा जा सकता है। जहाँ तक आधुनिक युग का प्रश्न है, ध्यान को लेकर कुछ चर्चा डॉ. नथमल टाटिया और पं. सुखलाल ने की थी। पं. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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