________________
.99
चाहे बीसा हो या दस्सा और चाहे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य हो या शूद, सबको पूजन करना चाहिये। सभी गृहस्थ जैनी है, सभी श्रावक हैं, अत:सभी पूजनके अधिकारी हैं।
श्रीतीर्थकर भगवानके अर्थात् जिस अरहंत परमात्माकी मूर्ति बनाकर हम पूजते हैं उसके समवसरणमें भी, क्या स्त्री, क्या पुरुष, क्या व्रती, क्या अवती, क्या ऊंच और क्या नीच, सभी प्रकारके मनुष्य जाकर साक्षात् भगवानका पूजन करते हैं। और मनुष्य ही नहीं, समवसरणमें पंचेन्द्रिय तिथंच तक भी जाते है-समवसरणकी बारह सभाओं में उनकी भी एक सभा होती है-वे भी अपनी शक्तिके अनुसार जिनदेवका पूजन करते हैं। पूजनफलप्राप्तिके विषयमें एक मेडककी कथा सर्वत्र जैनशास्त्रोंमें प्रसिद्ध है। पुण्यास्रवकथाकोश, महावीरपुराण, धर्मसंग्रहश्रावकाचार आदि अनेक ग्रंथोंमे यह कथा विस्तारके साथ लिखी है और बहुतसे ग्रंथोंमें इसका निम्नलिखित प्रकारसे उल्लेख मात्र किया है । यथाःरत्नकरण्डश्रावकाचारमें, "अर्हच्चरणसपर्या महानुभावं महात्मनामवदत् ।
भेकः प्रमोदमत्तः कुसुमेनैकेन राजगृहे ॥" १२० ॥ सागरधर्मामृनमें,
"यथाशक्ति यजेताहद्देवं नित्यमहादिभिः ।
मंकल्पतोऽर्पितं यष्टा भेकवत्स्वमहीयते ॥"२-२४ ॥ कथाका सारांश यह है कि जिस समय राजगृह नगरमें विपुलाचल पर्वतपर हमारे अन्तिम तीर्थंकर श्रीमहावीर स्वामीका समवसरण आया
और उसके सुसमाचारसे हर्षोल्लसित होकर महाराजा श्रेणिक आनंदभेरी बजवाते हुए परिजन और पुरजन सहित श्रीवीरजिनेन्द्रकी पूजा और वन्दनाको चले, उससमय एक मेडक भी, जो नागदत्त श्रेष्ठीकी बावडीमें रहता था और जिसको अपनी पूर्वजन्मकी स्त्री भवदत्ताको देखकर जा