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जिन सूत्र भागः2
खोती नहीं, वैसे ही ससूत्र जीव संसार में नष्ट नहीं होता।' जहां धागे के साथ है-ससुत्ता-सूत्र के साथ है, 'न नस्सइ सूई जहा ससुत्ता, न नस्सइ कयवरम्मि पडिआ वि।
कयवरम्मि पडिआ वि', गिर भी जाए तो खोती नहीं। 'जीवो वि जीवो वि तह ससुत्तो, न नस्सइ गओ वि संसारे।। | तह ससुत्तो'–और जो जीव भी सूत्र के साथ जुड़ा है, 'न
सुई गिर जाए बिना धागा पिरोयी, तो खोजना बड़ा मुश्किल हो नस्सइ गओ वि संसारे'-वह संसार में कभी नष्ट नहीं होता। जाता है। ऐसे ही हमारा जीवन धागा पिरोया नहीं अभी। ध्यान मौत आए, हजार बार आए, ससूत्र जीव को जीवन ही लाती है। का धागा अनुस्यूत नहीं किया अभी। अभी हमारा जीवन एक मृत्यु भी उसे मारती नहीं। ससत्र जीव को जहर भी अमत हो बिखरी राशि है। जैसे फूल किसी ने लगा दिये ढेर में। अभी | जाता है। इसमें शास्त्रयुक्तज्ञान का कहीं कोई उल्लेख नहीं है। हमारा जीवन एक माला नहीं बना कि फूलों को कोई पिरो दे एक लेकिन जैन-मुनि इसका अनुवाद करते हैं—'जैसे धागा धागे में। जब जीवन माला बनता है, तो ही जीवन में अर्थवत्ता | पिरोयी सुई गिर जाने पर भी खोती नहीं, वैसे ही शास्त्रज्ञानयुक्त आती है। ढेर की तरह हम क्षण-क्षण जीते हैं, लेकिन हमारे सारे जीव संसार में नष्ट नहीं होता है।' अब उन्होंने कुछ अपने क्षणों को जोड़नेवाला कोई अनुस्यूत धागा नहीं है। हमने अनंत | हिसाब से डाल लिया! शास्त्रज्ञान की तरफ इशारा नहीं है, जन्म जीए हैं, लेकिन सब ढेर की तरह लगा है, उसके भीतर कोई अन्यथा महावीर खुद ही कह देते; मुनियों के लिए न छोड़ते। , शृंखला नहीं है। शृंखला न होने से हमारी सरिता सागर तक नहीं | ससूत्रता। एक क्रमबद्धता, एक शृंखला बने जीवन, ऐसा पहुंच पाती।
बिखरा-बिखरा न हो। तुम अपने जीवन को देखो, एक पैर बायें तुम ही हो वह जिसकी खातिर
जा रहा है, दूसरा पैर दायें जा रहा है। आधा मन मंदिर जा रहा है, निशिदिन घूम रही यह तकली
आधा वेश्यालय में बैठा है। दुकान पर बैठे हैं, राम-राम जप रहे तुम ही यदि न मिले तो है सब
हैं; जब राम-राम जप रहे हैं, दुकान भीतर चल रही है। ऐसे व्यर्थ कताई असली-नकली
सूत्रहीन नहीं काम चलेगा। जीवन में एक दिशा हो, एक गंतव्य अब तो और न देर लगाओ,
हो, एक खोज, एक अन्वेषण हो। और जीवन में एक शंखला चाहे किसी रूप में आओ,
हो, अन्यथा शक्ति कम है, खोजना बहुत है; समय कम है, एक सूत भर की दूरी है
खोजना बहुत है; ऐसे तुम भटकते रहे कभी बायें, कभी दायें; बस दामन में और कफन में
कभी यहां, कभी वहां, तो सब खो जाएगा। ध्यान का सत्र, और जीवन महाजीवन बन जाता है। और मृत्यु यह अवसर खो मत देना। यह अवसर मश्किल से मिलता समाधि बन जाती है। ध्यान का सूत्र, और पदार्थ में परमात्मा है। महावीर ने बार-बार कहा है, मनुष्य होना मुश्किल से घटता झलकने लगता है। ध्यान का सूत्र, और जीवन का क्षुद्र से क्षुद्र है। इसे ऐसे मत गंवा देना। एक सूत्रबद्धता लाओ जीवन में। अंग भी विराट से विराट की आभा से परिप्लावित हो जाता है। एक दिशा-बोध। ध्यान से जीया गया जीवन ही जीवन है। शेष भटकाव है। शेष जैसे-जैसे दिशा आएगी, वैसे-वैसे तुम पाओगे कठिनाइयों में ऐसी यात्रा है कि तुम्हें पता नहीं क्यों जा रहे, कहां जा रहे, भी आशीर्वाद बरसने लगे। दुख में भी सुख की झलक मिलने किसलिए जा रहे? कौन हो, यह भी पता नहीं।
लगी। तूफान में भी सकून, शांति आने लगी। _ 'जैसे धागा पिरोयी सुई गिर जाने पर भी खोती नहीं, वैसे ही | लुत्फ आने लगा जफाओं में ससूत्र जीव संसार में नष्ट नहीं होता है।' यहां स्मरण दिला दूं, वो कहीं मेहरबां न हो जाएं जैन-शास्त्रकार जब इस सूत्र का अनुवाद करते हैं, तो वह ससूत्र का अर्थ करते हैं—शास्त्रज्ञानयुक्त जीव, जो कि बिलकुल ही
आज इतना ही। गलत है। मौलिक रूप से गलत है। महावीर के मूल वचन में कहीं भी शास्त्र का उल्लेख नहीं है। 'सूई जहा ससुत्ता'-सुई
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