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जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन
करता है और समत्वभाव होने पर ही व्यक्ति का कर्म अकर्म बनता है। समत्वभाव से किया गया कोई भी कर्म बन्धनकारी नहीं होता है।५१
इस प्रकार समत्वभाव के कारण ही ज्ञान यथार्थ ज्ञान बन जाता है, भक्ति परमभक्ति बन जाती है और कर्म अकर्म बन जाता है तथा व्यक्ति परमात्मा को प्राप्त कर लेता है।
ऐसे तो गीता के अट्ठारहों अध्याय में किसी न किसी योग का वर्णन किया गया है, क्योंकि उसके प्रत्येक अध्याय के अन्त में ऊँ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे---योगो नाम-----अध्याय: आदि शब्दों का वर्णन आया है। संक्षिप्त रूप में यह कहा जा सकता है कि गीता में योग का वास्तविक
और स्वरूपभूत लक्षण वर्णित है, जिसमें प्रत्येक स्थिति में आत्मसंयम, कामनात्याग, प्राणिमात्र से प्रेम, अहंकारशून्यता, निर्भयता, शीतोष्णता, सुख-दु:ख एवं निन्दास्तुति में समताभाव आदि गुणों की अपेक्षा की गयी है। स्मृति ग्रन्थों में योग
हमारी भारतीय परम्परा में स्मृतियों के आधार पर भी व्यवहार आदि कार्यों का निर्णय होता है। मनु, याज्ञवल्क्य, अत्रि, वशिष्ठ, गौतम, पराशर, आपस्तम्ब, दक्ष, हरीत, शाण्डिल्य, भारद्वाज तथा विश्वामित्र आदि महान् वेदवेत्ता, धर्मपरायण, अध्यात्मतत्त्व में पारंगत और योगज्ञान सम्पन्न ऋषियों के द्वारा श्रुतियों के आधार पर यह निर्मित है। स्मृतियों में प्रमुखत: सम्पूर्ण मानव-जाति के प्रात:काल के उत्थान से लेकर शयन, स्वप्न और पुन: जागरण तक तथा प्राणी के गर्भ में प्रवेश या गर्भाधानकाल से अन्त्येष्टि पर्यन्त और परलोक से लेकर पुनर्जन्म तक के विधान दिये गये हैं। परन्तु दक्षस्मृति, बृहद्योगियाज्ञवल्क्यस्मृति, याज्ञवल्क्यस्मृति, मनुस्मृति, पराशरस्मृति आदि में योग विषयक सामग्रियाँ उपलब्ध होती हैं। महर्षि दक्ष ने योग का स्वरूप निरूपण करते हुए कहा है कि योग से मनुष्य सम्पूर्ण लोक को वश में कर सकता है और बिना योग शक्ति के वह किसी को भी पूर्ण वश में नहीं कर सकता है। बिना योग के व्यवहार-ज्ञान भी नहीं होता। योग ही एकमात्र ऐसा साधन है जिससे मनुष्य स्वयं को भी वश में कर सकता है। इन्द्रियों को निवृत्त करने की क्षमता भी योग में ही है, अन्यथा प्रमादी स्वभाववाली इन्द्रियाँ किसी भी उपाय से वश में नहीं हो सकती हैं।५२ याज्ञवल्क्यस्मृति में महर्षि ने योगी द्वारा यज्ञ, दान, स्वाध्याय, सदाचार, अहिंसा आदि सभी धर्मों का आचरण किये जाने पर बल दिया है। परन्तु ग्रन्थ के आरम्भ में ही महर्षि ने योग-साधना के द्वारा परिपूर्ण रूप से परमात्म
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