Book Title: Jain Yug 1940
Author(s): Mohanlal Dipchand Chokshi
Publisher: Jain Shwetambar Conference

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Page 153
________________ 011-9-14४० જૈન યુગ. श्रीमान् पूर्णचन्द्रजी नाहर (संस्मरण) आचार्य श्रीराधारमण शर्मा, शास्त्री, काव्यतीर्थ. (२) (लेखांक २) जिस समय मेरे श्वशुर महामहोपाध्याय पंडित दोनों से पुराना द्वेप है, किन्तु आश्चर्य है, इन तीनों ने ही रामावतार शर्मा एम० ए० साहित्याचार्य-प्रणीत समम आपको अपना आश्रय बना रक्खा है।) दर्शन पर आपने अपने विचार प्रकट करना प्रारम्भ किया, मैंने नाहरजी को यह श्लोक सुनाया तो वे अट्टहास मुझे विदित हुआ-आपने जैन दर्शन के साथ ही प्राचीन कर उठे। बोले-"बनाने लगे न? तो मैं चलता है। कई हिन्दु-दर्शन का भी मननात्मक दर्शन किया है। साढे जरूरी कामों को छोडकर आया।" ग्यारह बज रहे थे। मेरे भोजन का समय बीत रहा था। “आपने व्यर्थ ही कष्ट किया। मैं तो आता ही: इधर डाक्टर की अंतडियां भी कुलकुला रही थीं, अत: मैंने भला आप जैसे महान् की अधिकाधिक संगति कौन न जाने की आज्ञा चाही, तो वे वहीं भोजन करने का जबर्दस्त चाहेगा और यदि आपने मुझे पहले दर्जे का भुलकड ही आग्रह करने लगे। अन्ततः प्रबल अनुरोध और संध्या में समझ लिया था, तो याद दिलाने किसी आदमी को भेज पुनः मिलने की प्रतिज्ञा करने के बाद अनुमति मिली। देते, या एक स्लिप लिख दी होती।"-मैंने कहा। "आप हम लोग लौटे। मुझे आदमी नहीं समझते?" उन्होंने हंसते हुए कहा “धूप बड़ी प्यारी मालूह हुई, इसलिए स्वयं टहलता चला घर आकर भोजन के बाद मैं आज के समाचार-पत्र आया । आप बिलकुल पास ही तो हैं।" . पढ ही रहा था कि नौकर ने आकर खबर दी-कोई नये नाहरजी जाने को हुए तो मैंने पूछा-" आपका सजन मुझसे मिलने को बाहर खडे हैं। यह बेबख्त का सत्कार में, एक अकिञ्चन, किस तरह करूं?" मिलना ! फिर यह हैं कौन जो यहां-जहां अभी मेरे मित्रों . " अपनी कृपा द्वारा"-उन्होंने छूटते ही कहा। और परिचितों की संख्या एक दहाई के समीप ही है-मुझसे “वह तो मैं देना नहीं, पाना चाहता हूं। पान मिलने आये हैं ! मैं उठकर बाहर आया। देखा, देखकर मंगवाउं ?" मे र हर्ष और विस्मय की सीमा न थी, स्वयं श्रीमान् पूर्णचन्द्रजी नाहार खडे मुस्किग रहे थे। अन्ततः कुछ इलायची लेकर वे चले गये। मैं उन्हें झटपट उन्हें ले जाकर कमर में बैठाया, पूछा-"आपने थोड़ी दूर पहुंचा आया। संध्या के बाद मैं उनके यहां स्वय कैसे कष्ट किया, और इस समय ?" पहुचा। थोडी देर इधर-उधर की बातों के बाद मैं भोजन "हां, आपको असमय कष्ट दिया. क्षमा करेंगे। करने बैठा । भोजन के लिए जितनी तरह की चीजे और संध्या में आपने पुनः आने का वचन दिया है-यही याद जितने परिमाण मैं लाई गई, वे मेरे जैसे अल्पाशी के पांचदिलाने आया हूं। ऐसा न हो आप भूल जायें। एक बात छः शाम के लए पर्याप्त था । अत्यन्त हठ के बाद मैं उनमें और, इस समय तो मेरे अनुरोध को आपने टुकरा दिया, से कुछ चीजें निकाल सका । भोजन की चीजें जितनी स्वाद यदि संध्या में भी ऐसा ही हुआ तो मेरी आमा को बड़ा और मधुर थीं, वह तो थी ही, जिस प्रेम से बैठकर वे चोट लगेगी।" खिला रहे थे, वह और भी मधुर और चिरस्मरणीय था। मैं उनके सौजन्य पर मुग्ध था। इतने बड़े सम्पन्न भोजन के बाद कुछ देर और ठहर मैं घर लौट आया । विद्वान में इतनी अधिक विनम्रता देख कई वर्ष पूर्व पढा यहां आने पर पता लगा-नाहरजी ने परिवार भर के लिए हुआ किसी कवि का एक शोक मेरे स्मृति-प्रांगण में खाने की चीजें भेजी हैं। आ कृदा (३) "लक्ष्मीर्यत्र न गीस्तत्र यत्र गीस्तत्र नो रमा। राजगृह में सबसे बड़ा दोष यह है कि वहां शारीरिक - ते यत्र विनयो नास्ति, सा च सा च स च त्वयि ॥" खुराक यथेष्ट मिल जाने पर भी मस्तिष्क का खुराक बिलकुल (जहां लक्ष्मी निवास करती हैं, वहां सरस्वती नहीं नहीं मिलती। डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के एक 'रद्दीएष्ट' और नामरहता। यदि कभी किसी तरह दोनों ने एक ही स्थान चुन मात्र के भ्रमणशील पुस्तकालय को बाद देने के बाद न तो भी लिया, तो विनय तो वहां रहेगा ही नहीं। उसका उन वहां और कोई पुस्तकालय है, और न वहां कोई पत्र-पत्रिका

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