Book Title: Jain Tattva Prakash
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Amol Jain Gyanalaya

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Page 11
________________ 1 हित मारवाड़ की ओर जाते समय रास्ते में पूज्य श्री उदयसागरजी महाराज के दर्शनार्थ रतलाम उतरे । यहाँ पर अनेक शास्त्रों एवं ग्रन्थों के ज्ञाता, युवावस्था में सजोड़ ब्रह्मचर्य व्रत के धारक, श्री कस्तूरचन्ददी लसोड़ से मिले । उन्होंने कहा - 'विष का प्याला सहज ही गिर गया है । अत्र पुनः उसे भरने के लिए क्यों तत्पर होते हो ?' पूज्यश्री जी ने भी कहा कि - 'एक बार वैरागी बनकर फिर क्यों वर बनने के लिए तैयार होते हो ?' परिणाम यह हुआ कि जीवन पर्यन्त ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर वे भोपाल लौट आए एवं दीक्षा के लिए प्रस्तुत हुए । किन्तु आज्ञा प्राप्त न होने से एक माह तक भिक्षाचारी रह कर फिर आज्ञा प्राप्त की । संवत् १६४३, चैत्र शुक्ला ५ को श्री पुनाऋषिजी महाराज से दीक्षा ग्रहण कर पूज्य श्री खूबाऋषिजी • महाराज के शिष्य बने । दीक्षा लेने के पश्चात् पर्याप्त ज्ञानाभ्यास करके तपश्चर्यारत हुए और १-२-३-४-५-६-७-८-६-१०-११-१२-१३-१४-१५ 1 १६-१७-१८-१६-२०-२१-३१-३३-४१-५१-६१-६३-७१-८१-८४-६११०१-१११ और १२१ तक की तपश्चर्या केवल छाछ के आधार पर की । - इसके अलावा छः महीने तक एकान्तर उपवास तथा अन्य फुटकल तपस्या की। उन्होंने पंजाब, मालवा, मेवाड़, मारवाड़, गुजरात, काठियावाड़, ढूंढाड़ झालावाड़, दक्षिण, खानदेश, और तेलंगाना आदि अनेक देशों में अप्रतिबन्ध विहार किया । साथ ही वाडिया के और माधोपुर के राजाजी को मांस आहार के प्रत्याख्यान कराए। "श्रीकेवल चन्दजी के ज्येष्ठ पुत्र और इस ग्रन्थ के कर्त्ता श्री अमोलकचंद्रजी पिता के साथ ही दीक्षा लेना चाहते थे, किन्तु स्वजनों ने आज्ञा प्रदान नहीं की । उन्हें मोशाल पहुँचा दिया गया। एक बार कविवर श्री तिलोक ऋषिजी महाराज के पट्टशिष्य महात्मा श्री रत्नऋषिजी महाराज और तप स्वीजी श्री केवलऋषिजी महाराज ठाना २ सहित इच्छावर ग्राम में पधारे । हाँ से दो कोस दूर खेड़ी ग्राम में अमोलकचन्दजी अपने मामा के यहाँ थे । वे पिताजी के दर्शनार्थ वहाँ आए । पिताजी को साधु वेष में देखकर उन्हें पुनः वैराग्य हुआ । उस समय केवल साढ़े दस वर्ष की अवस्था में ही संवत् १६४४ के फाल्गुण मास की कृष्णा द्वितीया को दीक्षा लेकर केवलऋषिजी 理

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