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हीरानन्दसूरि आदि कई रचनाकार हो चुके हैं। अभिलेखीय साक्ष्य १२५७ से लेकर १६८१ तक के प्राप्त हैं। पट्टावलियों के आधार पर प्रभुचन्द्रसूरि संवत् १६७६ से विद्यमान थे। इसी प्रकार दूसरी पट्टावलियों के अनुसार उद्योतनसूरि १७२७ तक का उल्लेख प्राप्त होता है। इस गच्छ के १२५७ से लेकर १६८१ तक के ५३ लेख प्राप्त होते हैं। २०. पार्श्वचन्द्रगच्छ - इस गच्छ की पट्टावलियों के अनुसार वडगच्छीय वादीदेवसूरि के शिष्य पद्मप्रभसूरि से नागोर में तपाबिरुद मिला था। इसीलिए उस समय नागोरीतपा नाम से इस परम्परा की प्रसिद्धि हुई। १६वीं शताब्दी में पार्श्वचन्द्रसूरि प्रखर विद्वान् हुए। उनकी कई कृतियाँ भी मिलती हैं। उनकी शिष्य सन्तति पार्श्वचन्द्रगच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुई और आज भी इसके साधु विद्यमान है। पार्श्वचन्द्रसूरि के विनयदेवसूरि शिष्य हुए जिनसे सुधर्मगच्छ की प्रसिद्धि हुई। पूंजाऋषि-आरामशोभाचरित्र, अंजनासुन्दरी रास इत्यादि प्रसिद्ध है। मेघराज ने नलदमयन्ती रास की संवत् १४६४ में रचना की। पार्श्वचन्द्रसूरि से सम्बन्धित कई पट्टावलियाँ प्राप्त होती हैं जिनका सक्षिप्त परिचय दिया गया है। वर्तमान में इस परम्परा में महोपाध्याय भुवनचन्द्रगणि विद्यमान हैं। इनके यति भी आज विद्यमान हैं। २१. पिप्पलगच्छ - चन्द्रकुल तथा बाद में चन्द्रगच्छ से यह संबंधित रहा है। १२वीं शताब्दी के मध्य में शान्तिसूरि और विजयसिंहसूरि इसके प्रमुख आचार्य माने गए हैं। इसके मूर्तिलेख विजयसिंहसूरि १२०८ से लेकर धर्मप्रभसूरि १७७८ तक के १६८ लेख प्राप्त होते हैं। सागरचन्द्रसूरि के बाद नरशेखरसूरि आदि की साहित्यिक कृतियाँ भी प्राप्त होती हैं। इसी गच्छ के त्रिभवीयाशाखा के मूर्ति लेख भी संवत् १४१३ से लेकर १५६१ तक के प्राप्त होते हैं। त्रिभवीयाशाखा की सर्वदेवसूरि से उत्पत्ति मानकर धर्मवल्लभसूरि तक का उल्लेख मिलता है। संवत् १५२८ के लेख के तालध्वजीयाशाखा का भी उल्लेख मिलता है।
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