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के कुलगुरु विजयसेनसूरि भी नागेन्द्रगच्छ के थे। उनके शिष्य उदयप्रभसूरि ने धर्माभ्युदय महाकाव्य (१२४०), उनके शिष्य शान्तिसूरि ने दिगम्बरों को शास्त्रार्थ में हराया था। उनके शिष्य आनन्दसूरि और अमरचन्द्रसूरि नामक दो शिष्य हुए उन्हों ने सिद्धराज जयसिंह के कार्यकाल में व्याघ्रशिशुक एवं सिंहशिशुक की उपाधि प्राप्त की थी। अमरचन्द्रसूरि ने सिद्धान्तार्णव ग्रन्थ की रचना की। इनके शिष्य हरिभद्रसूरि कलिकाल गौतम कहलाते थे। इस गच्छ की एक अन्य शाखा का भी उल्लेख प्राप्त होता है। उसमें देवेन्द्रसूरि कृत वासुपूज्य चरित्र (१२६४) की कृति प्राप्त होती है। मल्लिषेणसूरिस्याद्वादमंजरी टीका के रचियता (संवत् १३४८), मुनिधर्मकुमार-शालिभद्रचरित्र (संवत् १३३४) भी इनका प्राप्त होता है। इसी परम्परा में गुणरत्नसूरिऋषभरास और भरतबाहुबलि रास, सोमरत्नसूरि-कामदेवरास (संवत् १५२० के आसपास), ज्ञानसागर-जीवभवस्थितिरास (संवत् १४६७) और सिद्धचक्रश्रीपाल चौपई (संवत् १५३१) की प्राप्त होती है। संवत् १०८८ वासुदेवसूरि से लेकर संवत् १७१५ रत्नाकरसूरि तक १४८ लेख प्राप्त होते हैं। १८. निवृत्तिकुल - कल्पसूत्र स्थविरावली में इसका उल्लेख मिलता है। इसके अभिलेखीय साक्ष्य संवत् ५७२ से प्राप्त होते हैं। इस कुल में जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण-विशेषावश्यकभाष्य, शीलाचार्य (शीलांकाचार्य)आचारांगसूत्र टीका, सूत्रकृतांगटीका, चउपन्नमहापुरुष चरियं, सिद्धर्षिन्यायावतारटीका, उपदेशमाला टीका और उपमितिभव प्रपंच कथा, गर्गर्षिकर्मविपाक और पंचसंग्रह, द्रोणाचार्य-ओघनियुक्ति टीका, सूराचार्यदानादिप्रकरण आदि प्रसिद्ध विद्वान् हुए हैं। १२वीं शताब्दी के चार लेख प्राप्त होते हैं और बाकी के लेख बाद के हैं। १९. पल्लीवालगच्छ - संभवतः पाली से इसका उद्भव हुआ है। इस गच्छ में महेश्वरसूरि प्रथम, अभयदेवसूरि, महेश्वसूरि द्वितीय, ननसूरि, अजितदेवसूरि,
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