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२२. पूर्णतल्लगच्छ - प्राचीन नाम पूर्णतल्लक या पूर्णतल्ल, वर्तमान पुंताला, राजस्थान से इसका उद्भव हुआ है। इस शाखा में आम्रदेवसूरि, श्रीदत्तसूरि, यशोभद्रसूरि, प्रद्युम्नसूरि, गुणसेनसूरि, देवचन्द्रसूरि, कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्रसूरि, रामचन्द्र, गुणचन्द्र आदि प्रसिद्ध विद्वान आचार्य हुए हैं। इस गच्छ के प्रद्युम्नसूरि द्वारा प्राकृत भाषा में रचित मूलशुद्धि प्रकरण, देवचन्द्रसूरि रचित इसी प्रकरण की टीका (संवत् ११४६) भी प्राप्त होती है। देवचन्द्रसूरि की दूसरी कृति शान्तिनाथ चरित्र-प्राकृत भाषा में संवत् ११६० की प्राप्त की है। आचार्य देवचन्द्रसूरि के शिष्य कलिकालसर्वज्ञ विश्व प्रसिद्ध आचार्य हुए हैं। उनकी प्रमुख कृतियों में त्रिषष्टि शलाकापुरुषचरित्र महाकाव्य, सिद्धहेमशब्दानुशासन, योगशास्त्र आदि प्रमुख है। हेमचन्द्र के शिष्य रामचन्द्र शतप्रबन्ध के कर्ता माने गए हैं और गुणचन्द्रसूरि की नाट्यदर्पण और द्रव्यलंकार प्रसिद्ध कृति है। इसी प्रकार महेन्द्रसूरि ने अनेकार्थसंग्रह कोश पर अनेकार्थकैरवाकरकौमुदी की रचना की है और देवचन्द्र ने चन्द्रलेखाविजयप्रकरण नाटक की रचना की है। किसी शांत्याचार्य रचित न्यायावतार वार्तिक वृत्ति, तिलकमंजरी टिप्पण और पंचकाव्य लघु टीका आदि भी प्राप्त होते हैं। इन ग्रन्थों की रचना प्रशस्तियों में स्वयं को पूर्णतल्लगच्छीय और वर्द्धमान सूरि का शिष्य बतलाया है। २३. पूर्णिमागच्छ - चन्द्रगच्छ की परम्परा में पाक्षिकपर्व पूर्णिमा को माना जाने से इस गच्छ की स्थापना हुई है। विक्रम संवत् ११४९/११५९ में इसका आविर्भाव चन्द्रप्रभसूरि से हुआ। इस गच्छ में धर्मघोषसूरि, देवसूरि, चक्रेश्वरसूरि, समुद्रघोषसूरि, विमलगणि, देवभद्रसूरि, तिलकाचार्य, मुनिरत्नसूरि, कमलप्रभसूरि आदि प्रभावकाचार्य हुए हैं। इस शाखा से कई शाखाएँ उद्भव हुई। ढंढेरियाशाखा, साधुपूर्णिमा शाखा, कच्छोलीवालशाखा, भीमपल्लीयाशाखा, बटपद्रीयाशाखा, बोरसिद्धीयाशाखा, भृगुकच्छीयाशाखा और छापरियाशाखा आदि। चन्द्रप्रभसूरि की प्रमेयरत्नकोश, हेमप्रभसूरि की
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