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बृहद्संग्रहणी पुस्तिका, षट्कर्मअवचूरि भी प्राप्त होती है। मूर्तिलेखों में संवत् ११०२ से लेकर १५९९ महेन्द्रसूरि तक १५३ लेख प्राप्त होते हैं। १६. नागपुरीयतपागच्छ - संभवतः तपागच्छ की एक शाखा के रूप में यह गच्छ का अस्तित्व आया होगा। किन्तु, मान्यतानुसार बृहद्गच्छीय वादीदेवसूरि के शिष्य पद्मप्रभसूरि से इस गच्छ का उद्भव माना जाता है। पद्मप्रभसूरि को नागोर में उग्रतप करने के कारण वहाँ के शासक ने नागोरीतपा यह बिरुद दिया था जो कि परम्परागत शिष्य सन्तति ने स्वीकार किया। इसका उद्भव ११७३ में माना जाता है। किन्तु इसके मूर्तिलेख १६वीं-१७वीं शताब्दी के पूर्व के नहीं है। इस गच्छ का अन्तिम मूर्तिलेख १६६७ का प्राप्त है। चन्द्रकीर्तिसूरि ने १६२३ में सारस्वर व्याकरण दीपिका धातुपाठ विवरण, छन्दकोशटीका, हर्षकीर्ति रचित सारस्वरव्याकरण धातुपाठ (संवत् १६६३), योगचिन्तामणि, शारदीय नाममाला, लघुशांतिस्तोत्र, सिन्दूरप्रकर आदि प्राप्त होते हैं। लेखन प्रशस्तियों में १६५६ की प्राप्त होती है। १४५३ से लेकर १५४२ तक ३३ लेख प्राप्त होते हैं। श्री रत्नशेखरसूरि रचित सिरिवालचरियं प्राकृत भाषा में (१४२८) का प्राप्त होता है और इनकी कई अन्य कृतियाँ भी प्राप्त होती हैं। अन्य पट्टावलियों के अनुसार पद्मप्रभसूरि रचित भुवनदीपक ग्रन्थ भी इस गच्छ का माना गया है। १७. नागेन्द्रगच्छ - यह गच्छ कोटिकगण के नाइला शाखा से माना जाता है। नाइलशाखा का उद्भव ई.सन् १०० वर्ष के पश्चात् माना गया है। गुप्तकाल ई.सन् ४७३ में विमलसूरि रचित पउमचरियं ग्रन्थ भी इस परम्परा का माना जाता है। एक प्रशस्ति के अनुसार नाइलकुल में प्रद्युम्नसूरि हुए जिनके शिष्य का नाम वीरभद्र था। वीरभद्र के शिष्य प्रद्युम्नसूरि के शिष्य गुणपाल ने जंबूचरियं की रचना की। जंबूमुनि रचित जिनशतक (१०२५) का भी प्राप्त है। १०८८ की प्रतिमा के उल्लेख के आधार पर नागेन्द्रकुल नागेन्द्रगच्छ का नाम मिलता है। महामात्य वस्तुपाल-तेजपाल के पितृपक्ष
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