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कुञ्चगिका लेख ७८ • लनीयो भवति । सर्वानेतान् भाविन पार्थिवेन्द्रान् भूयो
भूयो याचते राम७६ य स्थलद चतुस्सीमय निवेशनमेन्तेन्दोडे मूडलु हिरिय
राजबीडि मादल ८० 'य घलेयलु पश्चिमक नीलविप्पत्तु वडगण मोटलोल
तंकलु अ. [ यह विस्तृत लेख दुर्मुखि सवत्सर, गक १०९८ में लिखा गया था। इसके प्रारम्भमें होयसल वशके राजामका कुलवर्णन वीरवल्लालदेव (द्वितीय) तक किया है। इनके समय देविसेट्टि नामक धनिकने वीरवल्लालजिनालय नामक मन्दिर बनवाया। मूलसंघ-देसिगण-कोण्डकुन्दान्वयके माचार्य वालचन्द्रकी प्रेरणासे यह कार्य हुआ। इस मन्दिरके लिए राजा वीरवल्लालने कुछ गाँव तथा कुछ करोका उत्पन्न अर्पण किया था। वालचन्द्रकी गुरुपरम्परा देवेन्द्र मैदान्तिक - वृषभनन्दि-चतुर्मुख-गोपनन्दि-जिनचन्द्रमाघनन्दि-रत्ननन्दि-उनके गुरुबन्धु बालचन्द्र इस प्रकार दो है।]
[ए० रि० मै० १९२३ पृ० ३६]
રહ૨ कुञ्चगि (तुकूर, मैमूर)
१२वी सदी (सन् ११८० ) वनड [ यह लेख एक जिनमूर्तिक पादपीठपर है। इसकी स्थापना मूलमघदेशोगण-पनसोंगे शाखाके नयकोतिसिद्धान्त चक्रवतिके शिष्य अध्यात्मि वालचन्द्रक उपदेशसे वम्मिमेट्टिके पुत्र केसरिसेट्टिने वेलूर में की थी। (समय लगभग ११८० ई.)1]
[ए. रि० मै० १९१६ पृ० ८३]