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एवं संग्रहालयों को यात्रा कर वहां की जैन मूर्तियों का विस्तार से अध्ययन और उपयोग भी किया गया है। ग्रन्थ के लिए यह ऐतिहासिक सर्वेक्षण अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुआ है। ओसिया की विद्याओं एवं जीवन्तस्वामी की मूर्तियां और जिनों के जीवनदृश्यों के अंकन, खजुराहो की विद्या (?), बाहुबली और द्वितीर्थी जिन मूर्तियां, देवगढ़ को २४ यक्षी, भरत,बाहुबली, द्वितीर्थी, त्रितीर्थी एवं चौमुखी जिन मूर्तियां, कुम्भारिया के वितानों के जिनों के जीवनदृश्य तथा जिनों के मातापिता एवं विद्याओं की मूर्तियां प्रस्तुत अध्ययन की कुछ उपलब्धियां हैं। इसी अध्ययन के क्रम में कतिपय ऐसे जैन देवताओं का भी सम्भवतः इसी ग्रन्थ में पहली बार विवेचन है जिनका जैन परम्परा में तो कोई उल्लेख नहीं प्राप्त होता परन्तु जो पुरातात्विक सामग्री के आधार पर यथेष्ट लोकप्रिय ज्ञात होते हैं ।
पंचम अध्याय में जिन-प्रतिमाविज्ञान का विस्तार से अध्ययन है। प्रारम्भ में जिन मूर्तियों के विकास की संक्षिप्त रूपरेखा दी गयी है और उसके बाद २४ जिनों के मूर्तिवैज्ञानिक विकास को व्यक्तिशः निरूपित किया गया है। इस अध्याय में प्रारम्भ से सातवीं शती ई० तक के उदाहरणों का अध्ययन कालक्रम में तथा उसके बाद का क्षेत्र के सन्दर्भ में और स्थानीय विशेषताओं को दष्टिगत करते हए किया गया है। यक्ष-यक्षी से सम्बन्धित षष्ठ अध्याय में भी यही पद्धति अपनायी गयी है। २४ जिनों के स्वतन्त्र मूर्तिविज्ञानपरक अध्ययन के बाद जिनों की द्वितीर्थी, त्रितीर्थी एवं चौमुखी मूर्तियों और चतुर्विशति-जिन-पट्टों तथा जिन-समवसरणों का भी अलग-अलग अध्ययन किया गया है। जिनों के प्रतिमानिरूपण में उनके जीवनदृश्यों के मतं अंकनों तथा द्वितीर्थी और त्रितीर्थी मूर्तियों के विस्तृत उल्लेख सम्भवतः यहीं पर पहली बार किये गये हैं।
षष्ठ अध्याय में जिनों के यक्षों एवं यक्षियों के प्रतिमाविज्ञान का विस्तृत अध्ययन प्रस्तुत किया गया है । यक्षों एवं यक्षियों के उल्लेख युगलशः एवं जिनों के पारम्परिक क्रम के अनुसार हैं। पहले यक्ष और उसके बाद सहयोगिनी यक्षी का प्रतिमानिरूपण किया गया है। प्रारम्भ में यक्षों एवं यक्षियों के मूर्तिवैज्ञानिक विकास को समग्र दृष्टि से आकलित किया गया है और उसके बाद उनका अलग-अलग अध्ययन प्रस्तुत है। यक्षों एवं यक्षियों के प्रतिमानिरूपण में स्वतन्त्र मूर्तियों के साथ ही सर्वप्रथम जिन-संयुक्त मूर्तियों के भी विस्तृत अध्ययन का प्रयास किया गया है।
सप्तम अध्याय निष्कर्ष के रूप में है जिसमें समग्र अध्ययन की प्राप्तियों को क्रमबद्ध रूप में प्रस्तुत किया गया है।
ग्रन्थ में परिशिष्ट के रूप में चार तालिकाएं दी गयी हैं, जिनमें २४ जिनों, यक्ष-यक्षियों एवं महाविद्याओं की सूचियां तथा पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या दी गयी है। अन्त में विस्तृत सन्दर्भ-ग्रन्थ-सूची, चित्र-सूची, शब्दानुक्रमणिका और चित्रावली दी गई हैं । चित्रों के चयन में मूर्तियों के केवल प्रतिमाविज्ञानपरक विशेषताओं का ही ध्यान रखा गया है।
प्रस्तुत ग्रन्थ के लेखन एवं प्रकाशन में जिन कृपालु व्यक्तियों एवं संस्थाओं से सहायता मिली है, उनके प्रति यहां दो शब्द कहना अपना कर्तव्य समझता हैं।
प्रस्तुत विषय पर कार्य के आरम्भ से समापन तक सतत उत्साहवर्धन एवं विभिन्न समस्याओं के समाधान में कृपापूर्ण सहायता और मार्गदर्शन के लिए मैं अपने गुरुवर डा. लक्ष्मीकान्त त्रिपाठी, रीडर, प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (का. हि० वि० वि०), का आजीवन ऋणी रहूंगा।
___ प्रो० दलसुख मालवणिया, भूतपूर्व अध्यक्ष, एल० डी० इन्स्टिट्यूट ऑव इण्डोलाजी, अहमदाबाद, डा० यू०पी० शाह, भूतपूर्व उपनिदेशक, ओरियण्टल इन्स्टिट्यूट, बड़ौदा, श्री मधुसूदन ढाकी, सहनिदेशक (शोध), अमेरिकन इन्स्टिट्यूट
ऑव इण्डियन स्टडीज, वाराणसी, डा० जे० एन० तिवारी, रीडर, प्रा० भा० इ० सं० एवं पुरातत्व विभाग, का० हि. वि. वि. और डा० हरिहर सिंह, व्याख्याता, सान्ध्य महाविद्यालय, का.हि. वि. वि. के प्रति भी मैं अपने को कृतज्ञ पाता हूं, जिन्होंने अनेक अवसरों पर तत्परतापूर्वक अपनी सहायता एवं परामर्शो से मुझे लाभ पहुंचाया है।
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