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पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान के निर्माण में भी आपका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। १९३६ में श्री सोहनलाल जैन धर्म प्रचारक समिति की स्थापना के उपरान्त इसके कार्यक्षेत्र को विस्तृत रूप देने के लिए आपने कुछ मित्रों की सलाह तथा शतावधानी मुनि श्री रत्नचन्द्रजी म. सा. के आदेश से पं० सुखलालजी से बनारस में सम्पर्क स्थापित किया। पण्डितजी के निर्देशन के आधार पर समिति ने जैनविद्या के विकास एवं प्रचार-प्रसार को अपना मुख्य लक्ष्य बनाया तथा उन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति हेतु विद्यानगरी काशी में १९३७ में पाश्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान की नींव डाली। समिति को प्राप्त दान के अतिरिक्त भी हरजसरायजी ने इस पुण्य कार्य में व्यक्तिगत रुप से काफी आर्थिक सहयोग प्रदान किया।
बाबू हरजसरायजी से मेरा प्रथम परिचय उन्हीं के सुयोग्य भतीजे लाला शादीलालजी के माध्यम से स्व० व्याख्यान वाचस्पति श्री मदनलालजी म० के सानिध्य में दिल्ली में हुआ था । दिनों-दिन यह सम्बन्ध प्रगाढ़ होता गया, फिर तो उनके साथ पार्श्वनाथ विद्याश्रम के कोषाध्यक्ष के रूप में वर्षों कार्य करना पड़ा। मैंने पाया कि लालाजी स्वभाव से अत्यन्त मृद, अल्पभाषी और संकोची हैं । किन्तु कर्तव्यनिष्ठा और लगन उनमें कूट-कूट कर भरी हुई है। आपने समाज सेवा तो की, किन्तु नाम की कोई कामना नहीं रखी, सेवा का ढ़ोल कभी नहीं पीटा। अलिप्त और निष्काम भाव से सेवा करना ही उनके जीवन का मूल मन्त्र रहा है। सामाजिक संस्थाओं में कार्य करते हुए भी आर्थिक मामलों में सदैव सजग
और प्रामाणिक रहना उनकी सबसे बड़ी विशेषता है। संस्था का एक कागज भी अपने निजी उपयोग में न आये इसके लिए न केवल स्वयं सजग रहते किन्तु परिवार के लोगों को भी सावधान रखते। लालाजी केवल विद्या-प्रेमी ही नहीं हैं, अपितु स्वयं विद्वान् भी हैं। यह बात सम्भवतः बहुत कम ही लोग जानते हैं कि शतावधानी पं० रत्नचन्द्र जी म. सा. द्वारा निर्मित अर्धमागधी कोश के अंग्रेजी अनुवाद का कार्य स्वयं लालाजी ने किया था।
यह उन्हीं के परिश्रम का मीठा फल है कि पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान जैन धर्म और जैनविद्या की निर्मल ज्योति फैला रहा है।
पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान परिवार लाला हरजसरायजी जैन के उत्तम स्वास्थ्य एवं दीर्घ जीवन की कामना करता है, ताकि उनको तपस्विता एवं निष्काम सेवावृत्ति से हमलोगों को सतत् प्रेरणा मिलती रहे।
-गुलाबचंद्र जैन
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