Book Title: Jain Pratimavigyan
Author(s): Maruti Nandan Prasad Tiwari
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 11
________________ आमुख . जैन धर्म पर देश-विदेश में पर्याप्त शोध कार्य हए हैं. पर जैन प्रतिमाविज्ञान पर अभी तक समुचित विस्तार से कोई कार्य नहीं हुआ है। जैन प्रतिमाविज्ञान पर उपलब्ध सामग्री के एक क्रमबद्ध एवं सम्यक अध्ययन के आकर्षण ने ही मुझे इस विषय पर कार्य करने के लिए प्रेरित किया। किसी भी ऐतिहासिक अध्ययन के लिए क्षेत्र तथा काल की सीमा का निर्धारण एक अनिवार्य आवश्यकता है। प्रस्तुत ग्रन्थ में जैन प्रतिमाविज्ञान के विकास को क्षेत्रीय दृष्टि से .मुख्यतः उत्तर भारत की परिधि में रखा गया है और इसमें प्रारम्भ से लगभग बारहवीं शती ई. तक के विकास का निरूपण किया गया है। तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से दक्षिण भारत की भी स्थान-स्थान पर चर्चा की गई है । जैन देवकुल यथेष्ट विस्तृत है तथा विभिन्न देवी-देवताओं के अंकन की दृष्टि से जैनकला प्रचुर मात्रा में समृद्ध भी है। अत: एक ही ग्रन्थ में जैन देवकुल के सभी देवी-देवताओं का स्वतन्त्र एवं विस्तृत प्रतिमानिरूपण अनेक कारणों से कठिन प्रतीत हुआ। तीर्थंकर (या जिन) ही जैन देवकुल के केन्द्र बिन्दु हैं और सभी दृष्टियों से उन्हीं का सर्वाधिक महत्व है, अस्तु प्रस्तुत ग्रन्थ में केवल जिनों ओर उनसे संश्लिष्ट यक्ष और यक्षियों के ही स्वतन्त्र एवं विस्तृत प्रतिमानिरूपण किये गये हैं। जैन देवकूल के अन्य देवी-देवताओं का केवल सामान्य निरूपण किया गया है । उपर्युक्त काल और क्षेत्र के चौखट में ग्रन्थ में आद्यन्त ऐतिहासिक के साथ-साथ तुलनात्मक दृष्टिकोण अपनाया गया है। यह तुलनात्मक विवेचन उत्पत्ति-विकास, प्राचीन तथा अपेक्षाकृत अर्वाचीन ग्रन्थों एवं मूर्ति अवशेषों, श्वेतांबर तथा दिगंबर मान्यताओं आदि के अध्ययन तक विस्तृत है। श्वेतांबर और दिगंबर ग्रन्थों तथा पुरातात्विक स्थलों की सामग्रियों का अलग-अलग अध्ययन कर प्रतिमाविज्ञान की दृष्टि से दोनों के समान तत्वों और भिन्नताओं को भी स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। प्रतिमानिरूपण से सम्बन्धित सभी उपलब्ध जैन ग्रन्थों का यथासंभव अध्ययन और उनकी सामग्री का समुचित उपयोग किया गया है। प्रकाशित ग्रन्थों के अतिरिक्त कुछ महत्वपूर्ण पाण्डुलिपियों का भी उपयोग किया गया है। इसी संदर्भ में कई महत्वपूर्ण श्वेतांबर एवं दिगंबर परातात्विक स्थलों की यात्रा क का विस्तृत अध्ययन भी प्रस्तुत करने की चेष्टा की गई है। प्रस्तुत ग्रन्थ में कुल सात अध्याय हैं। प्रथम दो अध्याय पृष्ठभूमि-सामग्री प्रस्तुत करते हैं और अगले अध्यायों में जैन देवकूल के विकास तथा प्रतिमाविज्ञान विषयक अध्ययन हैं। प्रथम अध्याय में विषय से सम्बन्धित विस्तृत प्रस्तावना दी गयी है, जिसमें क्षेत्र-सीमा, काल-निर्धारण, पूर्ववर्ती शोधकार्य, अध्ययन-स्रोत एवं शोध-प्रणाली आदि पर विस्तार से चर्चा है। द्वितीय अध्याय में जैन प्रतिमाविज्ञान की राजनीतिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभमि का ऐतिहासिक अध्ययन है। इसमें जैन धर्म एवं कला को विभिन्न यगों में प्राप्त होनेवाले राजकीय और राजेतर लोगों के प्रोत्साहन और संरक्षण तथा धार्मिक एवं आर्थिक पृष्ठभूमि पर विचार किया गया है । तृतीय अध्याय में जैन देवकुल के विकास का अध्ययन है। इसमें आवश्यकतानुसार मूर्तियों के उदाहरण भी दिये गये हैं और जैन देवकुल पर हिन्दू एवं बौद्ध देवकुलों तथा तान्त्रिक प्रभाव को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। एक स्थल पर सम्पूर्ण जैन देवकुल के विकास के निरूपण का सम्भवतः यह प्रथम प्रयास है। चतुर्थ अध्याय में उत्तर भारत के जैन मूर्ति अवशेषों का ऐतिहासिक सर्वेक्षण प्रस्तुत किया गया है। विभिन्न प्रकाशित स्रोतों से प्राप्त सामग्रियों के उपयोग के साथ ही खजुराहो, देवगढ़, ग्यारसपुर, ओसिया, आबू, जालोर, कुम्मारिया, तारंगा, राज्य संग्रहालय, लखनऊ, पुरातत्व संग्रहालय, मथुरा और राजपूताना संग्रहालय, अजमेर जैसे पुरातात्विक स्थलों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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