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प्रथम भाग।
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अन्धकार है। पक्षियों, तुम्हें, शरण है। पशुओं, तुम्हारे लिये भी शरण है । जरासी चींटी के लिये इस संसार में शरण है। किन्तु मैं अशरण हूं। मैं कुल्टा हूँ ! पापिनी हूं!! कलंकिणी हूं !! पतिदेव, मैंने तुम्हें काम के आवेश में पाकर त्याग दिया । पाह
आज मुझे सारा संसार त्यागे हुवे है । कहां गये, कहां गये ? मेरे घन और यौवन के साथी कालू और राम ! जिन्होंने मुझे इस अवस्था तक पहुँचाया । मेरे विनाश कर्ता कहां हैं ? रामू ! तूने मुझे सारी उमर निभाने का वचन दिया था। अब तू क्यों मुझे छोड़ बैठा है ? नहीं, नहीं, तेरा कोई अपराध नहीं है । तो फिर मैं किसका अपराध कहूँ ? ये सब मेरा ही अपराध है । नहीं, नहीं, ये अपराध दुष्ट माता पिता का है। मेरे साथ की सहेलियां अपने पतियों के संग चैन से रहती हैं । और पतिव्रता कहलाती हैं। मेरा वेजोड़ विवाह करके माता पिताने मुझे कलंकिणी बना डाला । हे ईश्वर मैं तुमसे यही वर मांगती हूँ कि ऐसे निर्बुद्धि अन्धे माता पिता को कभी भी संतान न हो । मेरा अन्त:करण कहता है मुझे दुलहिन बनाने वाले माता पिता का नाश हो। मेरा जोड़ा मिलाने वाले नाई का नास हो मेरे फेरे डालने वाले पुरोहित के घर में यही दशा हो जो मेरी हो रही है।
ओ अन्धे पुरोहित ! सब के सब निर्बुद्धी थे तो क्या हुआ । तु तो पढ़ा लिखा था । नीति का जानकार था वेदों का ज्ञाता था।