________________
(६८)
श्री जैन नाटकीय रामायण ।
व०-मैं वचन देता हूं।
मा०-तो सुनो “पर्वत और नारद में यह संवाद छिड़ा है कि श्रज का ठोक अर्थ क्या है । पर्वत कहता है कि अजका अर्थ छेला है । नारद कहता है कि अज का अर्थ बिना छित्तक के चावल हैं।
व०-किन्तु माता, बचन तो नारद का ही सत्य है । गुरुजी ने तो हमें यही अर्थ बताया है जो नारद कहता है।
'मा०-होते २ उनमें यहां तक होगई कि कल राजा. वसु से इसका न्याय करायेंगे । और जो सत्य होगा वह झूठे की जिव्हा काट लेगा।
व०-इस प्रकार तो पर्वत की हा जिव्हा कटेगी। माल-किन्तु तुम मुझे बचन दे चुके हो ।
व०-यह मुझे घोर नरक में डालने वाला है । उस समय में समा में राज सिंहासन पर बैठ कर यह मँठा न्याय कैसे करूँगा ? ____ मा०-मैं समझती हूं कि पर्वत झूठा है किन्तु मेरे पती ने वैराग्य धारण कर लिया है । यदि पर्वत की जिव्हा कट जायगी तो मेरे लिये दूसरा सहारा नहीं है । पुत्र तुम अपने बचन को निव्हाना।
4०--माता, आप निश्चिन्त रहिये । मैं दी हुई गुरु
याय