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तृतीय माग
(१८३)
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चन्द्रगती-पुत्र तुम शोक मत करो । मैं तुम्हें अवश्य ही सीता दिलाऊंगा तुम चैन से रहो । ( सेवक से ) जाओ चपलवेग को शीघ्र बुला लाओ ( जाता है चपनवेग सहित भाता है।)
चपलवेग-महाराजा धिराज की जय हो । कहिये मेरे लिये क्या प्राज्ञा है।
चन्द्रगती--(चपलवेग को एकांत में बुलाकर ) देखो हम लोग विद्याधर हैं । भूमीगोचरों के घर जाकर उनसे कन्या नहीं मांग सकते इस लिये तुम मिथिला जाकर घोड़े का रूप बनाआ। जब राजा जनक सवारी करें तब उन्हें यहां उड़ाकर ले आओ। कार्य अत्यन्त कुशलता से होना चाहिये। धोका न खाना । काम करके जल्दी श्राना।
चपलवेग--जैसी धाज्ञा ( जाता है)
चंद्रगती--पुत्र भामण्डल चलो महल में चलो । तुम्हारी माता तुम्हारी वाट देखती होगी । अब तुम कोई चिंता न करो सीता तुम्हें अबश्य प्राप्त होगी।
(सव चले जाते हैं । पर्दा गिरता है।)
अंक द्वितिय दृश्य चतुर्थ ( राजा जनक और चपलवेग आते है।)