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जम्बूस्वामी चरित्र
पर्यत भोगते रहते हैं। आयुके अंतमें जम्हाई व छींक मानेसे प्राण त्यागते हैं। वे मंद कषामी होनेसे पापरहित होते हैं । इसलिये सर्व ही स्त्री पुरुष प्राण छोड़के देव गतिको जाते हैं। उनके शरीर मेघोंके समान उड़ कर विला जाते हैं। इसतरह भवसर्पिणीके पहलेकालकी विधि थोडीसी वर्णन की है। शेष सर्व अवस्था देवकुरु उत्तरकुरुके समान जाननी चाहिये।
नोट-यहां कुछ श्लोक उपयोगी जानके दिये जाते हैं, जिससे पाठकोंको भोगभूमिकी अवस्थाका ज्ञान हो
वज्रास्थिबंधनाः सौम्याः सुन्दराकारचारवः । निष्टसकनकच्छाया दीन्यन्ते ते नरोचमाः॥ १३ ॥ मुकुट कुंडलं हारो मेखला कटकांगदौ । केयूरं ब्रह्मसूत्रं च तेषां शश्वद्विभूषणम् ॥ १४ ॥ महासत्ता महाधैर्या महोरस्का महौजसः । महानुभावास्ते सर्वे महीयते महोदयाः ॥ १६॥ निर्व्यायामा निरातका निर्विहारा निरामयाः। निःस्वेदास्ते निराधाधं जीवति पुरुषायुष ॥ १८ ॥
इसतरह पहला काल क्रमसे ज्यों ज्यों बीतता जाता था, कल्पवृक्षोंकी शक्ति मनुष्योंकी मायु व ऊंचाई धीरे धीरे कम होती जाती थी। चार कोडाकोड़ी सागर बीतनेपर दूसरा सुखमा काल तीन कोडाकोड़ी सागरका प्रारम्भ हुमा । तब भोगभूमिके मानवोंकी मायु दो पल्पकी रह गई। शरीरकी ऊँचाई चार हजार धनुषकी