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तृतीय भाग
मैं अब किसकी शरण ग्रहण करूं १ याद आया जिनराज की शरण के तुल्य इस जग में दूसरी शरण नहीं है । में इन्हींके सिंहासन के पीछे जाकर छिपता हूं | ( छिप जाता है | )
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( चन्द्रगती सेवकों सहित आता है। भक्त लोग जय जिनेन्द्र के गान में मस्त हैं । कोई नाचते हैं, कोई बाजे बजाते हैं कोई घंटों की ध्वनी कर रहे हैं। सबके सब भक्तो पूर्वक शीष झुकाते हैं । ) प्रार्थना |
चन्द्रगती
तुम परम पावन देव जिन अरि, रज रहस्य विनाशनं । तुम ज्ञान हग जल बीच त्रिभुवन, कमलपत प्रति भासनं ॥ आनन्द निधन अनंत अन्य अर्चित संतत परनये ।
चल अतुल कलित स्वभाव नहीं, खलित गुनश्रमिलित थये ( उसकी प्रार्थना को सुनकर राजा जनक बाहर आजाता है । चन्द्रगती जनक को देखता है ।) चंद्रगती --- हे महाशय ! आप यहां पर किस लिये पारे | श्रापका नाम ग्राम कौनसा है ?
जनक - मैं मिथिलापुरी का गजा जनक हूं । माया मई घोड़ा मुझे यहां उड़ा लाया है । आपका क्या नाम है ?
चन्द्रगती - मैं रथनूपुर का राजा विद्याधरों का स्वामी चन्द्रगती हूं। तुम्हें देखकर मुझे अत्यन्त हर्ष हुआ है । तुम्हें मैंने ही बुलाया है ।
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