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तृतिय भाग ।
( १६७ )
हिंसा है, किन्तु हमारा जैन धर्म यह नहीं बताता कि थापत्ति के काल में मुंह छिपाकर कायर बनकर बैठ जाना ग्रहस्थी लोग अणुव्रती होते हैं। उनसे जो ग्रहस्थी में पाप होते हैं । वह उन्हें विवश होकर करने पड़ते हैं । यह बात अवश्य है कि हमें किसी पर बलात्कर नहीं करना चाहिये। किसी का धन देश या नारी हड़पने के लिये युद्ध करना जिन धर्म के खिलाफ है ।
गुरु- वास्तव में लक्ष्मण तुम नीति और धर्म शास्त्र में निपुण हो । जाओ अब मैं तुम्हें छुट्टी देता हूं ।
( सब बच्चे भाग जाते हैं पर्दा गिरता है ) अंक प्रथम - दृश्य पांचवां
(विदेहा रानी तुरत की पैदा हुई सीता को लिये लो रही है। जाग कर पुत्र को देखती है उसे
न देख कर वह व्याकुल होती है। पलंग के नीचे देखती है । दासी को बुलाती है ) विदेहा - कमला ! कमला ! जल्दी था ।
कमला - ( आकर ) क्या आज्ञा है महारानी जी १ विदेहा—जा सारे महल में मेरे पुत्र को ढूंड | न मालुम कौन मेरे पास से सोते हुये पुत्र को उठा ले गया ? ( कमला जाती है । मेरे बच्चे को कौन उठा लेगया ? हाय मैं क्या करूं । उसे कहां हूं । ( कमला आती है ) क्यों लाई मेरे बच्चे को ?
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